संघ की न्यायपालिका The Union Judiciary
परिचय
भारत की न्याय व्यवस्था इकहरी और स्वीकृत है, जिसके सर्वोच्च शिखर पर भारत का उच्चतम न्यायालय है, उच्चतम न्यायालय दिल्ली मेँ स्थित है।उच्चतम न्यायालय के गठन संबंधी प्रावधान अनुच्छेद-124 मेँ किया गया है।उच्चतम न्यायालय मेँ एक मुख्य न्यायाधीश न्यायाधीश होते है इन न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।
उच्चतमन्यायालय
उच्चतम न्यायालय की स्थापना, गठन, अधिकारिता, शक्तियों के विनियमन से संबंधित विधि निर्माण की शक्ति भारतीय संसद को प्राप्त है।उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश एक बार नियुक्त हो जाने के पशचात 62 वर्ष की आयु तक अपने पद पर बना रहता है।उच्चतम न्यायालयों के न्यायाधीश साबित कदाचार तथा असमर्थता के आधार पर संसद के प्रत्येक सदन मेँ विरोध बहुमत से पारित समावेदन के आधार पर राष्ट्रपति द्वारा हटाए जा सकते हैं।उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की योग्यताएं- उसे भारत का नागरिक होना चाहिए।वह किसी उच्च न्यायालय अथवा दो या दो से अधिक न्यायालयों मेँ लगातार 5 वर्षोँ तक न्यायाधीश के रुप मेँ कार्य कर चुका हो।या किसी उच्च न्यायालय मेँ 10 वर्षोँ तक अधिवक्ता रह चुका हो।राष्ट्रपति की दृष्टि मेँ कानून का उच्च कोटि का ज्ञाता हो।उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के पश्चात भारत मेँ किसी भी न्यायालय या किसी भी अधिकारी के सामने वकालत नहीँ कर सकते हैं।
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को पद एवं गोपनीयता की शपथ राष्ट्रपति दिलाता है।भारत के मुख्य न्यायधीश को 90 हजार प्रतिमाह तथा अन्य न्यायाधीशों को 80 हजार रुपए प्रति माह वेतन मिलता है। इसके अतिरिक्त निःशुल्क सुसज्जित आवास या दस हजार रुपया मासिक आवास भत्ता, बिजली, पानी, टेलीफोन, स्वास्थ्य सुविधाएं देश के भीतर कहीँ भी यात्रा, कुछ विशेषाधिकार, अवकाश ग्रहण के बाद पेंशन आदि उपलब्ध होते हैं।मुख्य न्यायधीश पर महाभियोग केवल कदाचार के आधार पर लगाया जा सकता है।महाभियोग की कार्यविधि निश्चित करने का अधिकार संसद को प्राप्त है।महाभियोग का प्रस्ताव दोनो सदनोँ मेँ पृथक-पृथक तक कुल सदस्योँ के बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्योँ के दो तिहाई बहुमत से पारित होना चाहिए।दोनो सदनों द्वारा महाभियोग पारित होने के पश्चात राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। राष्ट्रपति उसी आधार पर न्यायाधीशों को पदच्युति का आदेश देता है।
उच्चतमन्यायालयकाक्षेत्राधिकार
भारत संघ तथा एक या एक से अधिक राज्योँ के मध्य उत्पन्न विवादों में।भारत संघ तथा कोई एक राज्य या अनेक राज्य और एक या एक से अधिक राज्योँ के बीच विवादो मेँ।दो या अधिक दो से अधिक राज्योँ के बीच ऐसे विवाद मेँ, जिसमेँ अनेक वैधानिक अधिकारोँ का प्रश्न निहित है।प्रारंभिक क्षेत्राधिकार के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय उसी विवाद को निर्णय के लिए स्वीकार करेगा, जिसमें तथ्य या विधि का प्रश्न शामिल है।अपीलीय क्षेत्राधिकार – देश का सबसे बड़ा अपीलीय न्यायालय उच्चतम न्यायालय है।इसके अंतर्गत तीन प्रकार के मामले आते है-संवैधानिकदीवानीफौजदारीपरामर्शदात्री क्षेत्राधिकार - राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह सार्वजनिक महत्व के विवादों पर उच्चतम न्यायालय का परामर्श मांग सकता है, अनुच्छेद 148।न्यायालय के परामर्श को स्वीकार या अस्वीकार करना राष्ट्रपति के विवेक पर निर्भर करता है।पुनर्विचार संबंधी क्षेत्राधिकार - संविधान के अनुछेद 137 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त है कि वह स्वयं द्वारा दिए गए आदेश रात पर पुनर्विचार कर सकें।अभिलेख न्यायालय संविधान का अनुच्छेद 129 उच्चतम न्यायालय को अभिलेख न्यायालय का स्थान प्रदान करता है।संविधान के अनुच्छेद 32 मेँ विशेष रुप से प्रावधान है कि वह मौलिक अधिकारोँ को लागू कराने के लिए आवश्यक कार्यवाही करेँ।उच्चतम न्यायालययह किसी एक उच्च न्यायालय में चल रहे मुकदमे को दुसरे उच्च न्यायालय में भिजवा सकता है।यह किसी अदालत का मुकदमा अपने पास मंगवा सकता है।इसके फैसले सभी अदालतों को मानने होते हैं।अपने अधीनस्थ अदालतों का पर्यवेक्षण और नियंत्रण करता है।निचली अदालतों के फैसले पर की गयी अपील की सुनवाई कर सकता है।
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प्रशासनिकअधिकरण
1976 के 42 वेँ संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा अनुच्छेद 323क का समाविष्ट किया गया, जो केंद्र व राज्य की सरकारी सेवाओं मेँ नियुक्ति, पदोन्नति एवं स्थानांतरण व सेवा दशाओं संबंधी मामलोँ के विनिश्चय हैतू केंद्रीय व राज्य प्रशासनिक अधिकारणों की स्थापना का प्रावधान करता है।इस प्रावधान के पालन हैतु संसद ने 1985 के प्रशासनिक अधिकरण अधिनियम को पारित किया, ताकि केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण (CAT) की स्थापना की जा सके।कई राज्यों मेँ भी राज्य प्रशासनिक अधिकरण हैं।सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के कर्मचारियोँ से सम्बद्ध संबंध मामलोँ को केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण या राज्य प्रशासनिक अधिकरण के तहत विज्ञप्ति के द्वारा लाया जा सकता है (जैसी आवश्यकता हो)। अधिकरण के सभापति तथा उप सभापति को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समकक्ष दर्जा प्राप्त होता है और उनकी सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष होती है।अन्य सदस्यों जो प्रशासन से लिए जाते हैं के सेवानिवृत होने की आयु 62 वर्ष होती है।निम्नलिखित श्रेणी के कर्मचारियो को प्रशासनिक अधिकारणों के दायरे से उन्मुक्ति प्राप्त होती है-उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालय के कर्मचारियो को सैन्य बल कर्मचारियों कोराज्य सभा व लोक सभा सचिवालय के कर्मचारियो कोअधिकरणों का उद्देश्य न्यायालय के कार्यभार को कम करना व न्याय प्रक्रिया को तीव्र करना है।42वेँ संविधान संशोधन अधिनियम के अनुसार सेवा संबंधी मामलोँ की सुनवाई सिर्फ उच्चतम न्यायालय कर सकता है।राष्ट्रपति, भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श कर केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण और राज्य प्रशासनिक अधिकरण के सभापति व अन्य सदस्योँ की नियुक्ति करता है।इसका सभापति बनने वाला व्यक्ति या तो किसी उच्च न्यायालय का न्यायाधीश अवश्य होना चाहिए या कम से का 2 वर्षों तक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्यरत अवश्य रहा हो अथवा अधिकरण का उपसभापति रहा हो।
केंद्रीयप्रशासनिकअधिकरण
केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण की स्थापना 1985 मेँ संसदीय प्रशासनिक अधिकरण अधिनियम, 1985 के तहत की गई। अतः यह एक संवैधानिक निकाय है।यह नियुक्ति व सभी सेवा संबंधी मामलोँ के विवादों का निपटारा करता है।इसका उद्देश्य सिविल सेवकों को शीघ्र व सस्ता न्याय उपलब्ध कराना है।यह एक बहु सदस्यीय निकाय है, जिसमे एक सभापति, 16 उपसभापति तथा 49 अन्य सदस्य होते हैं।सभापति तथा उपसभापति का कार्यकाल 5 वर्षोँ का अथवा 65 वर्ष की आयु पूरी करने तक जो भी पहले हो होता है।अन्य सदस्योँ की पदावधि 5 वर्ष या 62 वर्ष की आयु पूरी करने तक (जो भी पहले हो) होती है।वे पुनर्नियुक्त नहीँ हो सकते।उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।वे न्यायिक व प्रशासनिक दोनो क्षेत्रों लिए जाते है।केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण 1908 की सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) से बाध्य नहीँ होता।इसका क्षेत्राधिकार अखिल भारतीय सेवाओं (AIS) तथा केंद्रीय सेवाओं (CS) व पदों तक विस्तृत होता है।केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (Department od Personnel & Traning) के प्रशासनिक नियंत्रण मेँ कार्य करता है, जो कि कार्मिक, लोक शिकायतें और पेंशन मंत्रालय (Ministry of Personnel, Public Grievance & Pensions) के तीन विभागोँ मेँ से एक है।भारत में न्यायपालिकासर्वोच्च न्यायालयउच्च न्यायालय (राज्यों में)जिला मेंमहानगरीय क्षेत्र मेंमहानगरों में मजिस्ट्रेट कोर्टशहरी सिविल तथाप्रेसिडेंसी लघुसिविलसेशन कोर्टमामलों के कोर्टअधीनस्थ कोर्टप्रांतीयलघु मामलों के कोर्टआपराधिक (फौजदारी)मुंसिफ कोर्टन्याय पंचायतअधीनस्थ मैजिस्ट्रेट कोर्टपंचायत कोर्टन्यायिक मैजिस्ट्रेटकार्यपालिकामैजिस्ट्रेट
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उच्च न्यायालय
संविधान के अनुछेद 214 के अनुसार प्रत्येक राज्य का एक उच्च न्यायालय होगा।अनुच्छेद 231 के अनुसार संसद विधि द्वारा दो या दो से अधिक राज्योँ और किसी संघ राज्य क्षेत्र के लिए एक ही उच्च न्यायालय स्थापित कर सकती है।वर्तमान मेँ भारत मेँ 21 उच्चं न्यायालय हैं।केंद्र शासित प्रदेशोँ मेँ से केवल दिल्ली मेँ उच्च न्यायालय है।प्रत्येक उच्च न्यायालय का गठन एक मुख्य न्यायाधीश तथा ऐसे अन्य न्यायाधीशों से मिलकर किया जाता है।इनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है।उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की योग्यताएँवह भारत के नागरिक हो।कम से कम 10 वर्ष तक न्यायिक पर धारण कर चुका हो, अथवा किसी उच्च न्यायालय मेँ एक या एक से अधिक न्यायालयों मेँ लगातार 10 वर्षोँ तक अधिवक्ता रहा हो।उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को उस राज्य, जिसमेँ जिसमें उच्च न्यायालय स्थित है, राज्यपाल उसके पद की शपथ दिलाता है।उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का वेतन 90 हजार रूपये प्रतिमाह है। एवं अन्य न्यायाधीशों का वेतन 80 हजार रुपए प्रतिमाह है।उच्च न्यायालय के न्यायाधीशोँ का अवकाश ग्रहण करने की अधिकतम उम्र सीमा 62 वर्ष है। उच्च न्यायालय के न्यायाधीश अपने पद से, राष्ट्रपति को संबोधित कर कभी भी त्यागपत्र दे सकता है।उच्च न्यायालयों के कार्य क्षेत्र और स्थाननामस्थापना वर्षप्रदेशीय-कार्यक्षेत्रस्थानइलाहाबाद1866उत्तर प्रदेशइलाहाबाद (लखनऊ में न्यायपीठ)आन्ध्र प्रदेश1954आन्ध्र प्रदेशहैदराबादमुंबई1862महाराष्ट्र, गोवा, दादरा और नगर हवेली, दमन और दीवमुंबई (पीठ-नागपुर, पणजी और औरंगाबाद)कोलकाता1862पश्चिम बंगालकोलकाता (सर्किट बेंच पोर्ट ब्लेयर)छत्तीसगढ़2000विलासपुरविलासपुरदिल्ली1966दिल्लीदिल्लीगुवाहाटी1948असम, मणिपुर, मेघालय, नागालैंड, त्रिपुरा, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेशगुवाहाटी (पीठ कोहिमा, इम्फाल, आइजोल, शिलांग, अगरतला एवं इटानगर)गुजरात1960गुजरातअहमदाबादहिमाचल प्रदेश1971हिमाचल प्रदेशशिमलाजम्मू एवं कश्मीर1928जम्मू एवं कश्मीरश्रीनगर और जम्मूझारखण्ड2000झारखण्डरांचीकर्नाटक1884कर्नाटकबंगलुरुकेरल1958केरल और लक्षद्वीपएर्णाकुलममध्य प्रदेश1956मध्य प्रदेशजबलपुर (पीठ-ग्वालियर एवं इंदौर)मद्रास1862तमिलनाडु और पुडुचेरीचेन्नई (पीठ-मदुरई)उड़ीसा1948उड़ीसाकटकपटना1916बिहारपटनापंजाब और हरियाणा1966पंजाब हरियाणा और चंडीगढ़चंडीगढ़राजस्थान1949राजस्थानजोधपुर (पीठ-जयपुर)सिक्किम1975सिक्किमगंगटोकउत्तराखंड2000उत्तराखंडनैनीताल
अधीनस्थ न्यायालय
भारत मेँ तीन प्रकार के अधीनस्थ न्यायालय होते हैं-फौजदारी न्यायालय – लड़ाई-झगड़े, मारपीट, हत्या, चोरी, जालसाजी आदि के विवाद।दीवानी न्यायालय - धन संबंधी वाद।राजस्व न्यायालय - लगान संबंधी मामलोँ की सुनवाई। राज्य की सबसे बड़ी अदालत मंडल होती है, इसके निर्णय की अपील राज्य के उच्च न्यायालय मेँ की जा सकती है।
लोक अदालतें
विधिक सेवा प्राधिकार अधिनियम, 1987 (Legal Service Authorities Act, 1987) के तहत लोक अदालतोँ को संवैधानिक (statutory) दर्जा दिया गया है। लोक अदालतों के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-
समाज के कमजोर वर्गोँ के लिए न्याय सुनिश्चित करना।खर्च व समय की बचत हैतु वादों का बड़ी संख्या मेँ सामूहिक निपटारा करना।विधिक सेवा अधिनियम मेँ प्रावधान है लोक अदालतों का गठन राज्य या जिला स्तरीय प्राधिकारोँ के द्वारा किया जाएगा और लोक अदालतों को उनका प्राधिकार भी राज्य/जिला निकाय प्रदान करते हैं।लोक अदालतोँ का क्षेत्राधिकार व्यापक होता है, जिसमे सिविल, आपराधिक, राजस्व अदालतों या अधिकरणों के तहत आने वाले कोई भी मामले सम्मिलित हो सकते हैं।कोई भी वाद लोक अदालतों तक तभी जाता है जब दोनों पक्षकार इसके लिए समझोते हैतु संयुक्त आवेदन दें।लोक अदालत का निर्णय सभी पक्षकारों पर बाध्यकारी होते हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि उन्हें सिविल न्यायालयों की शक्ति दी गई है।उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालय ने समय-समय पर लोक अदालतों के माध्यम से हजारोँ मामलोँ का निपटारा किया है। 2 अक्टूबर 1996 को एक राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम का प्रारंभ किया गया कि लोक अदालतों के द्वारा 10 लाख मामले निपटाए जाएंगे।वर्तमान मेँ देश के सभी न्यायालयों को मिलाकर लगभग 2.5 लाख मामले लंबित हैं।विवादों के निपटारे के लिए एक वैकल्पिक माध्यम के रुप मेँ लोक अदालतें अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
जिला न्यायाधीश
जिला स्तर पर प्रधान न्यायाधिकारी होता है। वह दीवानी और फौजदारी दोनोँ प्रकार के वादों की सुनवाई करता है और उसे जिला एवं सत्र न्यायाधीश कहते हैं।
1 अप्रैल, 2014 से फास्ट ट्रक कोर्ट (न्यायालय) अस्तित्व में आए हैं।भारत मेँ सर्वप्रथम पारिवारिक न्यायालय जयपुर मेँ स्थापित किया गया।
निचली अदालतेँ
निचली अदालतोँ का कामकाज और उसका ढांचा देशभर मेँ कमोबेश एक जैसा ही है। अदालतों का दर्जा इनके कामकाज को निर्धारित करता है। ये अदालतें अपने अधिकारोँ के आधार पर सभी प्रकार के दीवानी और आपराधिक मामलोँ का निपटारा करती हैं। ये अदालतें नागरिक प्रक्रिया संहिता-1908 और अपराध प्रक्रिया संहिता-1973, इन दो प्रमुख संहिताओं के आधार पर काम करती हैं।
राष्ट्रीय न्याय अकादमी
न्यायिक अधिकारियों को सेवा के दौरान प्रशिक्षण देने के लिए सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी की स्थापना की है। इसका पंजीकरण 17 अगस्त, 1993 को सोसायटीज रजिस्ट्रेशन अधिनियम, 1860 के तहत हुआ है।यह अकादमी भोपाल मेँ स्थित है, जिसका पंजीकृत कार्यालय दिल्ली मेँ है। राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति ने 5 सितंबर, 2002 को किया था।
कानूनी सहायता
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39क में सभी के लिए न्याय सुनिश्चित किया गया है और गरीबों तथा समाज के कमजोर वर्गो के लिए निःशुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था की गई है। संविधान के अनुच्छेद 14 और 22 (1) मेँ राज्य के लिए यह जिम्मेदारी दी गई है कि वह सबके लिए समान अवसर सुनिश्चित करेँ।1987 में विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम पास किया गया। इसी के अंतर्गत राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (नालसा) का गठन किया गया। इसका काम कानूनी सहायता कार्यक्रम लागू करना और उसका मूल्यांकन एवं निगरानी करना है। साथ ही, इस अधिनियम के अंतर्गत कानूनी सेवाएं उपलब्ध कराना भी इसका काम है।हर राज्य मेँ एक राज्य कानूनी सहायता प्राधिकरण, हर उच्च न्यायालय मेँ एक उच्च न्यायालय कानूनी सेवा समिति गठित की गई है।
लोक अदालतें
लोक अदालतें ऐसा मंच है, जहाँ विवादों/अदालतों में लंबित मामलों या दायर किये जाने से पहले ही वादों का सद्भावनापूर्ण ढंग से निपटारा किया जाता है। लोक अदालतोँ को कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के अंतर्गत कानूनी दर्जा दिया गया।लोक अदालतेँ कानूनी सेवा प्राधिकरणों / समितियों द्वारा सामान्य तरीके से अर्थात कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम की धारा 19 के अंतर्गत आयोजित की जाती हैं।लोक अदालतों का गठन सर्वप्रथम महाराष्ट्र मेँ हुआ।
कानूनी व्यवसाय
देश मेँ कानूनी व्यवसाय से संबंधित कानून अधिवक्ता अधिनियम, 1961 और देश की बार काउंसिल द्वारा निर्धारित नियमों के आधार पर संचालित होती है। कानून के क्षेत्र मेँ काम करने वाले पेशवरों के लिए यह एक स्वनिर्धारित कानूनी संहिता है।
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नवीं अनुसूची सम्बन्धी निर्णय
क्या है नवीं अनुसूची?
प्रथम संविधान संशोधन (1951) द्वारा नेहरु सरकार द्वारा अनुच्छेद 31ख लाते हुए नवीं अनुसूची को संविधान से जोड़ा गया।
उद्देश्य
कुछ कानूनों को इस सूची मेँ रखकर न्यायिक समीक्षा से दूर करना।उस समय आवश्यक था क्योंकि भूमि सुधार व जमींदारी उन्मूलन से संबंधित प्रगतिशील कानून बनाने थे जो संपत्ति के मौलिक अधिकार से टकराते थे।
न्यायालय का निर्णय
11 जनवरी, 2007 को 9 जजों कि संविधान पीठ द्वारा निर्णय दिया गया कि-
यदि कोई कानून 24 अप्रैल,1973 के पश्चात नवीं अनुसूची मेँ दर्ज हुआ है और उससे मौलिक अधिकारोँ का उल्लंघन होता है तथा वह संविधान के मूल ढांचे को नष्ट करने वाला है, तो ऐसे कानून को चुनौती दी जा सकती है, यानि न्यायालय उसकी समीक्षा कर सकता है। लेकिन चुनौती दिए जाने से पहले कि कार्यवाहियां इसलिए अप्रभावित रहेंगीं।नवीं अनुसूची के कानूनोँ की समीक्षा सीधे प्रभाव और प्रभाव के परिणाम के आधार पर होंगी।पीठ ने अनुच्छेद 31ख की संवैधानिकता और कानून को नवीं अनुसूची मेँ शामिल किए जाने से उठे सवालों पर ऐतिहासिक व्यवस्था देने के साथ ही इसके दायरें मेँ शामिल विभिन्न कानूनोँ की वैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाएं तीन सदस्यीय पीठ को विचारार्थ भेज दी।
क्या है विवाद?
प्रारंभ मेँ व्यापक जन कल्याण से संबंधित कानून ही नवीं अनुसूची मेँ डाले गए और बाद की सरकारों द्वारा इसका दुरुपयोग किया गया।राजनीतिक लाभों के लिए कानून बनाकर इस सूची मेँ डाला गया।हाल के आरक्षण व दिल्ली मेँ सीलिंग मुद्दे से जुड़े कानूनों को भी इस अनुसूची मेँ डालने के प्रयास किए गए।प्रारंभ के 13 कानून- भूमि सुधार से संबंधित जबकि वर्तमान मेँ 284 कानून इसमेँ शामिल, जिनमें प्रमुख हैं –तमिलनाडु मेँ 69 % आरक्षण का कानूनकेंद्रीय कोयला खदान कानून, 1974अतिरिक्त भत्ता राशि कानून, 1974कोफेपोसा, 1974बीमार कपड़ा उपक्रम कानून, 1974उत्तर प्रदेश भूमि हदबंदी कानून, 1974आवश्यक सेवा अनुरक्षण कानून (एस्मा) (Essential Services Maintenance Act.)
कानून की वैधानिकता जांचने का आधार
नवीं अनुसूची मेँ शामिल किए जाने वाले कानून, संविधान के मूल आधार के सिद्धांत की पुष्टि करते हैं।किसी भी कानून के संविधान के भाग 3 मेँ दिए गए अधिकारों की गारंटी पर वास्तविक क्या प्रभाव है, इसका आकलन इस प्रकार किया जाए कि कही वह कानून मूल आधार को नष्ट तो नहीँ कर रहा है।यदि किसी कानून की वैधता को सर्वोच्च न्यायालय पहले ही मान चुका है कि उसको इस आधार पर चुनौती नहीँ दी जा सकती है कि कानून इस निर्णय के विरुद्ध है।
मामले को उठाने वाला कारक
उल्लेखनीय है कि एक एनजीओ “Common Cause” ने विभिन्न सरकारोँ की और से संविधान की नवीँ अनुसूची मेँ एक के बाद एक क़ानून शामिल करने की प्रवृत्ति को सर्वोच्च न्यायालय मेँ चुनौती दी थी।
भारत का विधि आयोग
18वें विधि आयोग का पुनर्गठन भारत 1 सितंबर, 2006 को 3 वर्ष के लिए किया गया था। डॉं न्यायमूर्ति ए. आर. लक्ष्मण इसके तत्कालीन अध्यक्ष थे तथा डॉं डी. पी. शर्मा को 31 मार्च, 2006 से सदस्य सचिव बनाया गया था।
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