भारत में नृत्य के प्रकार Dance Forms Of India
भारत में प्राचीन समय से ही बहुमुखी नृत्य रूपों – शास्त्रीय और क्षेत्रीय दोनों का ही विकास हुआ है| भारतीय नृत्य कला के सभी रूपों में रिस चुका है, जो कविता, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीत और थिएटर सहित अन्य जगहों पर देखने को मिलता है| भारत के नृत्य विशिष्ट विशेषताओं की एक साथ, एक समग्र कला है, जो दर्शन, धर्म, जीवन चक्र, मौसम, और पर्यावरण की भारतीय विश्वदृष्टि को दर्शाती है| एक गतिशील कला के रूप में, रचनात्मक कलाकारों की कल्पना के साथ, नृत्य रूपों का विकसित होना आज भी जारी है| गुफाओं में मिले चित्र, मोहन जोदड़ो की ‘नृत्य करती स्त्री की मूर्ति’, वेद, उपनिषद और अन्य महाकाव्यों में मिले साक्ष्य स्पष्ट रूप से नृत्य प्रदर्शन की भारत की समृद्ध परंपरा को प्रमाणित करते हैं| भरत मुनि का नाट्य शास्त्र नृत्यकला का प्रथम प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। इसको पंचवेद भी कहा जाता है। हिन्दू धर्म में अपनी जड़ो के साथ, सदियों से नृत्य कला, मूर्तिकला के कलाकारों को प्रेरित करती रही है, जिनका प्रभाव हमारे मंदिरों पर स्पष्ट रुप से देखा जा सकता है| इसका सबसे अच्छा उदाहरण है, ‘नटराज’ के रूप में शिव का शानदार ढंग से जटिल और प्रतीकात्मक चित्रण|
भारतीय शास्त्रीय नृत्य नाट्य शास्त्र में संहिताबद्ध सौंदर्य सिद्धांतों से संचालित होते हैं। नाट्यशास्त्र के सिद्धांत के अनुसार नृत्य दो तरह का होता है- मार्गी (तांडव) तथा लास्य। तांडव नृत्य भगवान शंकर ने किया था। यह नृत्य अत्यंत पौरुष और शक्ति के साथ किया जाता है। दूसरी ओर लास्य एक कोमल नृत्य है जिसे भगवान कृष्ण गोपियों के साथ किया करते थे। यहाँ कुछ और भी विशिष्ट भेद है-
नृत्त या शुद्ध नृत्य, यह अमूर्त भंगिमाओं और ताल पर किया जाता है|
नृत्य या अभिव्यक्ति नृत्य, इसमें एक गीत के अर्थ को व्यक्त करने के लिए अंग, चेहरे का भाव, और हाथ के इशारों शामिल होते हैं|
नाट्य या नाटक, इसमें अभिनय के चार तत्वों का एक विषय पर संवाद करने के लिए उपयोग किया जाता है| अभिनय के चार तत्व हैं: अंगिका या शारीरिक गतिविधियाँ; वाचिका या भाषण और बातचीत; अहर्य या वेशभूषा, मंच पर स्थिति, और गुण; और सात्विक या मानसिक स्थितियां|
नाट्यशास्त्र सभी मानवीय भावों को नौ रसों में विभाजित करता है - श्रृंगार (प्रेम); वीर (वीरता); रुद्र (क्रूरता); भय (भय); बीभत्स (घृणा); हास्य (हंसी); करुण (करुणा); अदभुत (आश्चर्य); और शांत (शांति)।
किसी भी नृत्य का उद्देश्य रस को पैदा करना होता है, जो की भाव के अनुसार दर्शक में नर्तकी द्वारा बनाई गई भावना की एक अवस्था होती है|
ज्यादातर शास्त्रीय नृत्य धर्म से सम्बंधित होते थे इसलिए नृत्य की सामग्री आमतौर पर देवी देओताओं से सम्बंधित होती थी| मंदिर में होने वाले नृत्य अब प्रतिबंध लगा दिया गया है, शास्त्रीय नृत्य में व्याप्त भक्ति (भक्ति) की भावना को असाधारण नर्तकियों हमेशा ने जगाये रखा है। भरत नाट्यम सबसे पुराने शास्त्रीय नृत्य शैली है, परन्तु इसके साथ, सात अन्य क्षेत्रीय शैलियां भी उभरी हैं:
कुचिपुड़ी (दक्षिण पूर्वी तट); कथक (उत्तर); कथकली, मोहिनीअट्टम (दक्षिण पश्चिम तट); ओडिसी, (पूर्वी तट); मणिपुरी (पूर्वोत्तर); और सत्त्रिया नृत्य (असम, उत्तर पूर्व)।
भरतनाट्यम Bharatanatyam
यह सभी नृत्यों में सबसे प्राचीन है, जो मोहन जोदड़ो की ‘नृत्य करती स्त्री की मूर्ति’ में भी दिखाई देता है| भरतनाट्यम लास्य को प्रदर्शित करता है, जिसमे कोई नर्तकी 10 या 12 भावों को प्रदर्शित करती है| भरतनाट्यम दक्षिण भारत में में विकसित हुआ, जहाँ पल्लव और चोल राजाओं ने अपने मूर्तिकला, चित्रकला और देवताओं से अपनी भक्ति के लिए भव्य हिन्दू मंदिरों का निर्माण कराया| चोल राजाओं ने अपने मंदिरों में सैकड़ों देवदासियों (देवताओं की सेविकायें) को रखा| यह परंपरा उन्नीसवीं सदी के अंत तक पांड्य, नायक और मराठा शासकों द्वारा निरंतर चलती रही। देवदासियां मंदिरों में अनुष्ठान और अन्य धार्मिक आयोजनों पर अपने नृत्य का प्रदर्शन करती थी और इन्हें यहाँ के ब्राह्मणों का संरक्षण भी प्राप्त था| ब्रिटिश शासन और ईसाई मिशनरियों ने यह महसूस किया की देवदासी परंपरा उस समय तक लांक्षित हो गयी थी, जो केवल "वेश्याओं" के रूप में कम कर रहीं थीं| 1927 में देवदासी अधिनियम द्वारा मद्रास (तमिलनाडु) में मंदिरों में सभी तरह के नाच पर प्रतिबंध लगा दिया।
बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में रुक्मिणी देवी अरुण्डेल, जो एक उच्च वर्ग की ब्राह्मण महिला थीं, ने भरतनाट्यम का अध्ययन किया और इसका पुनरुद्धार करने का प्रयास किया| मद्रास में 1927 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सत्र के दौरान, ई कृष्णा अय्यर, जो एक वकील और स्वतंत्रता सेनानी थे, ने प्रथम अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन का आयोजन किया। 1928 में संगीत अकादमी की स्थापना क्र इसके मंच पर दो देवदासी नर्तकियों के नृत्य को प्रस्तुत किया गया| रुक्मिणी देवी ने 1935 में मद्रास में थियोसोफिकल सोसायटी में एक अंतरराष्ट्रीय सभा से पहले प्रदर्शन भी किया। उन्होंने 1936 में भरत नाट्यम में एक प्रशिक्षण संस्थान, कलाक्षेत्र अकादमी की स्थापना भी की। तब से, इसके खिलाफ कलंक कम होने लगा, और कुछ ही वर्षों के भीतर भरत नाट्यम ने अभूतपूर्व लोकप्रियता हासिल की।
भरत नाट्यम की तकनीक में हाथ, पैर, मुख व शरीर संचालन के समन्वयन के 64 सिद्धांत हैं, जिनका निष्पादन नृत्य पाठ्यक्रम के साथ किया जाता है। भरत नाट्यम तुलनात्मक रूप से नया नाम है। पहले इसे सादिर, दासी अट्टम और तन्जावूरनाट्यम के नामों से जाना जाता था।
इसे वर्तमान रूप प्रदान करने का श्रेय तंजौर चतुष्टय अर्थात पौन्नैया,पिल्लै तथा उनके बंधुओं को है। 20वीं शताब्दी में इसे रवीन्द्रनाथ टैगोर, उदयशंकर और मेनका जैसे कलाकारों के संरक्षण में यह नाट्यकला पुनर्जीवित हो गई। रुक्मिणी देवी अरुण्डेल भारत की सबसे पहली प्रख्यात नृत्यांगना हुई हैं, और उनके समकालीनों में राम गोपाल, मृणालिनी साराभाई, शांता राव, और कमला जैसे कलाकार थे। अन्य प्रमुख कलाकारों में यामिनी कृष्णमूर्ति, सोनल मानसिंह, पद्मा सुब्रह्मण्यम, मालविका सरकार शामिल हैं। चंद्रलेखा जैसे कलाकारों ने भावुक विषयों को छोड़कर इसमें मार्शल आर्ट जोड़कर इसे एक नया रूप देने का प्रयास किया|
कत्थक Kathak
कत्थक का अर्थ है ‘कथा’ अर्थात ऐसा नृत्य जो किसी कहानी का वर्णन करता है| कत्थक सदियों से मुख्यतः उत्तर-भारत में पवित्र हिन्दू मंदिरों में पला और परिष्कृत हुआ, और इसने यहाँ की संस्कृति के विभिन्न रंगों के साथ खुद को समृद्ध बनाया। कथक के सन्दर्भ रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों में भी पाए जाते हैं। मध्ययुगीन भारत में भक्ति काल के विकास के साथ-साथ कत्थक भी नृत्य-नाट्य जैसे आख्यान, पंडवानी, हरिकथा और कलाक्षेपम आदि के रूप में मंदिर-प्रांगणों में प्रदर्शित किया जाता रहा| कत्थक एकल नृत्य के रूप में विकसित हुआ| महान मुगल सम्राटों ने कथक कलाकारों को संरक्षण दिया, लेकिन यहाँ नृत्य की सामग्री में नाटकीय रूप से परिवर्तन आया। अब राधा और कृष्ण की प्रेम कहानियों के चित्रण की बजे, शुद्ध और अमूर्त नृत्य करने पर जोर दिया गया। मुगलों के संरक्षण में इस नृत्य पर फारसी सांस्कृतिक प्रभाव भी पड़ा। राजस्थान के हिन्दू राजाओं ने भी पौराणिक हिंदू कथाओं के कत्थक नर्तकों को संरक्षण दिया| कत्थक अत्यंत नियमबद्ध एवं शुद्ध शास्त्रीय नृत्य शैली है, जिसमें पूरा ध्यान लय पर दिया जाता है। इस नृत्य में पैरों की थिरकन (तत्कार) और घूमने (चक्कर) पर विशेष ध्यान दिया जाता है। ज्यादातर कत्थक नृत्य राधा-कृष्ण की प्रेम कथाओं पर उनके जीवन के वसंत का चित्रण करते हैं| अवध, लखनऊ के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह के समय में यह कला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई, और इसमें ग़ज़ल और ठुमरी के समायोजन का भी प्रयास हुआ| कत्थक का अमीर जमींदारों के लिए मंदिर प्रांगणों में प्रदर्शन किया जाता था इसलिए धीरे-धीरे इसकी वेश्याओं की अश्लील नृत्य के रूप में निंदा की जाने लगी थी।
मेनका, जो एक उच्चवर्गीय ब्राह्मण नृत्य कलाकार थीं, ने कथक नृत्य को गले लगा लिया और इसमें कई सुधारों और शोधन की शुरुआत की| उन्होंने कथक के लिए सामाजिक अनुमोदन लाने और इसके कलंक को दूर करने में काफी मदद की थी| स्वतंत्रता के बाद कत्थक को सरकार से संरक्षण प्राप्त हुआ| रंगमंच पर अपने प्रदर्शनों के साथ इसमें नए प्रयोग और समायोजन होते रहे और यह और समृद्ध होता चला गया|
सितारा देवी, बिरजू महाराज, रोशन कुमारी, दुर्गा लाल रोहिणी भटइ, कुमुदिनी लखिया, उमा शर्मा, उर्मिला नगर, राम मोहन, सस्वती सेन, और राजेंद्र गनागनी, सभी इस कला के प्रसिद्ध कलाकार हैं।
कुमुदिनी लखिया ने कथक में समकालीन विषयों पर नवाचारों की शुरूआत की।
कथकली Kathakali
कथकली केरल के राज्य का एक नृत्य-नाटक का रूप है। कथकली विकास की एक लंबी प्रक्रिया की परिणति है जो कूडियाट्टम् (एक प्रकार का उच्च शैली का नाट्य) और कलारिपयाट्टू (एक प्रकार का मार्शल आर्ट) के आत्मसात होने से बना है| दिव्य प्राणी, देवताओं, राक्षसों, और संतों के जीवन और कार्यों से संबंधित सबसे अलौकिक और पौराणिक पहलुओं को कथकली की सामग्री के रूप में प्रदर्शित किया जाता है| कूडियाट्टम् नौवीं और दसवीं शताब्दी से ही चला आ रहा है, समकालीन कथकली, स्वतंत्र रूप में सत्रहवीं सदी में अत्यधिक रूपवादी और विस्तृत नृत्य-नाटक के रूप में उभरा। कथकली में नर्तक कुछ भी बोलते नहीं हैं, और इसका नाट्य गीत मनिप्रवालम में गया जाता है, जो की संस्कृत से समृद्ध एक प्रकार की मलयालम है| कथकली विस्तृत हाथ के इशारों और लोकप्रिय मुद्राओं के साथ प्रदर्शित किया जाता है| मानसून के महीनो के दौरान इसके नर्तक शारीर को अधिक लचीला बनाने के लिए तेल आदि की मालिश कराते हैं|
कथकली का प्रशिक्षण बहुत कठिन होता है, और दस वर्षों तक मेहनत करने के बाद किसी कलाकार को कोई छोटी सी भूमिका दी जाती है| कथकली की वेशभूषा और श्रृंगार कथकली प्रदर्शन की प्रतीकात्मक बारीकियों को दर्शाता है| कथकली की मुख्य विशेषता चेहरे की मांसपेशियों की विभिन्न गतिविधियाँ है| कथकली के अलावा कोई और नृत्य भौंहों, आंखों और निचली पलकों का प्रयोग नहीं करता है| इस नृत्य में चेहरा विभिन्न परस्पर विरोधी भावों या भावनाओं का एक खेल का मैदान बन जाता है। अलग-अलग पात्रों की विशिष्ट पहचान के लिए विस्तृत श्रृंगार किया जाता है| कथकली संगीत की गायन शैली को एक विशिष्ट सोपान शैली में विकसित किया गया है, जिसकी गति बहुत धीमी होती है। कथकली में दो मुख्य संगीतकार होते हैं, जिसमें मुख्य संगीतकार को 'पोनानी' और दूसरे को 'सिनकिडी' के नाम से जाना जाता है। दो और संगीतकार चेन्दा और मदालम (एक प्रकार के ढोल) बजाते हैं| कथकली में अधिकांशत: पुरुष ही महिलाओं की भूमिका निभाते हैं, परन्तु कुछ समय से महिलाओं को कथकली में शामिल किया जाने लगा है। कल्याण सौगंधिकम, बाली विजयम, लावानासुरावधम, नल चरितम और सीता स्वयंवरम इसके प्रसिद्ध नृत्य नाटकों में से एक हैं।
1936 में केरल कला मंडलम संसथान कथकली को पुनर्जीवित करने के लिए, कवि वल्लथोल नारायण मेनन द्वारा स्थापित किया गया था| इस संसथान ने यहाँ पढ़ाने के लिए, केपी कुंजू कुरुप, टी चंदू पणिक्कर, टी रामुननी नायर, गुरु गोपीनाथ, वी कुंछु नायर, चेंगन्नुर रमन पिल्लै, एम विष्णु नंबूदरी, और कलामंडलम कृष्णन नायर जैसे प्रसिद्ध कलाकारों को आमंत्रित किया।
समकालीन कथकली कलाकारों में रमणकुट्टी नायर, के. चातुन्नी, पणिक्कर, कलामंडलम पद्मनाभन नायर और कलामंडलम गोपी जैसे कलाकार शामिल हैं|
कूडियाट्टम् Koodiyattam
केरल की परंपरा के अनुसार राजा कुलशेखर वर्मन (900 ई) ने अपने ब्राह्मण मंत्री तोलन के साथ इस नृत्य को प्रचलित किया| उन्होंने मंच पर केरल के मलयालम भाषा के उपयोग की शुरुआत जहाँ केवल उत्तर भारत की संस्कृत का उपयोग किया जाता था| इसमें हिन्दू जीवन के चार शास्त्रीय चरणों (आश्रम) का प्रयोग किया जाता है| कूडियाट्टम् सौंदर्य आनंद की असीम संभावनाएं प्रदान करता है। इसमें एक नृत्य-नाटक आठ से नौ दिनों तक चल सकता है, जिसका अभ्यास महीनो तक किया जाता है| इसके नाटकों में शानदार मलयालम में बुद्धि, हास्य, और व्यंग्य को विनोद के साथ दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया जाता है। परिचय के अंत में नृत्य शुरू होता है और संस्कृत में लय छंद पात्रों द्वारा बोले जाते हैं। महिलाओं की भूमिका नंगयर महिलाओं द्वारा निभाई जाती है| नाम्ब्यार बड़े तांबे का ढोल बजाते हैं जिसे मिज्हावा कहते हैं| साधारणत 'कूत्तंपलम' नामक मंदिर से जुडे नाट्यगृहों में इस कला का मंचन होता है|
कूडियाट्टम् में अभिनय की चार रीतियाँ प्रयोग की जाती है - 'आंगिक', 'वाचिक', 'सात्विक' और 'आहार्य'। कूडियाट्टम में हस्तमुद्राओं का प्रयोग करते हुए विशद अभिनय किया जाता है। इसमें इलकियाट्टम, पकर्न्नाट्टम, इरुन्नाट्टम आदि विशेष अभिनय रीतियाँ भी अपनाई जाती हैं। यह मनोरंजन के साथ-साथ उपदेशात्मक भी होता है। इसमें उपदेश देने वाले विदूषक की भूमिका सर्वप्रमुख होती है, जो सामाजिक बुराइयों की ओर इशारा करता है। इसे चाक्यार और नंपियार समुदाय के लोग प्रस्तुत करते हैं। चाक्यार के पहले 18 परिवार इसका मंचन करते थे, जो अब घट कर 6 परिवारों तक सीमित रह गए हैं और इनकी संख्या घटती जा रही है| अम्मनौर, कितान्नुर, और पैनकुलम प्रसिद्ध चकियार परिवारों हैं। राम चकियार, चाचू चकियार, और मणि माधव चकियार अतीत के महान कलाकार थे। अम्मनौर माधव चकियार, जी वेणु और उनकी बेटी कपिला इस कला के युवा पीढ़ी के धरोहर हैं|
कुचिपुड़ी Kuchipudi
प्राचीन मान्यताओं के अनुसार आंध्र प्रदेश के कुचिपुड़ी गाँव में योगी सिद्धेन्द्र, जो भगवन कृष्ण के भक्त थे, ने इस नृत्य को तैयार किया, और कुछ ब्राह्मण पुरुष अभिनेताओं के साथ कुचिपुड़ी परंपरा को बनाए रखने की कसम खाई| सोलहवीं शताब्दी के कई शिलालेखीय और साहित्यिक स्रोतों में इस नृत्य का उल्लेख मिलता है, जो संभवतः यक्षगान से विकसित हुआ| जब 1668 में गोलकुंडा के नवाब अब्दुल हसन तहनिशाह के सामने इस नृत्य का प्रदर्शन किया गया तो वे इससे बहुत प्रभावित हुए, और उन्होंने इस प्रदर्शन में भाग लेने वाले ब्राह्मणों को यह गाँव दे दिया| इसके बाद उन ब्राह्मणों के वंशज परिवारों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया|
सबसे लोकप्रिय कुचिपुड़ी नाटक में भगवान कृष्ण की सबसे ईर्ष्यालु पत्नी सत्यभामा की कहानी है, जो अपने दिव्य पति को उनकी सोलह हजार पत्नियों के साथ साझा करने से नफरत करती है और स्वयं को एक कोठरी में बंद करके कभी बाहर ने निकलने का प्रण करती है| फिर माधवी, सत्यभामा और भगवान कृष्ण के बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिए अच्छे और बुद्धिमान मध्यस्थ की भूमिका निभाती है। पारंपरिक रूप से महिलाओं की भी भूमिका पुरुषों द्वारा निभाई जाती रही है, जिसमे सत्यभामा की भूमिका सबसे प्रतिष्ठित है| यह आधुनिक भारत के सबसे लोकप्रिय नृत्य नाटिका के रूप में जाना नाटक है, जिसे भामाकल्पम कहते हैं| अन्य लोकप्रिय कुचिपुड़ी नाटकों उषा परिणयम, प्रहलाद चरित्रम, और गोला कलापम हैं। इसमें प्रत्येक अभिनेता के प्रवेश के लिए एक गीत होता है, जिसके द्वारा वह खुद का परिचय कराता है| यह परंपरा आज भी जीवित है और कुचिपुड़ी गांव में समाज के सदस्य प्रतिवर्ष इसका प्रदर्शन करते हैं| लक्ष्मीनारायण शास्त्री इस नृत्य के अभिनय या अभिव्यक्ति के महान कलाकार हैं| उन्होंने व्यक्तिगत रूप से नृत्य करते हुए एक पीतल की थाली के रिम पर संतुलन बना कर, जिसे वह तरंगम कहते है, जैसे नए अभिनयो की शुरुआत की| उनके शिष्य वेम्पति चिन्ना सत्यम ने भी इस परंपरा के लिए अच्छा कार्य किया है|
वेदांतम सत्यम पारंपरिक महिला प्रतिरूपण के लिए जाने जाते हैं, लेकिन यह परंपरा धीरे-धीरे लुप्त भी हो रही है। यामिनी कृष्णमूर्ति, शोभा नायडू, राजा राधा रेड्डी, स्वप्न सुंदरी, और मल्लिका साराभाई कुचिपुड़ी के कुछ जानेमाने कलाकार हैं।
मणिपुरी Manipuri
मणिपुरी नृत्य और संगीत की एक सदियों पुरानी परंपरा है, जो धार्मिक जीवन के साथ निकट सह-अस्तित्व में विकसित हुई है। मणिपुर में कोई भी सामाजिक उत्सव नृत्य और संगीत के बिना नहीं मनाया जाता है| मणिपुर का प्राचीन हिन्दू त्यौहार लाई हरोअबा (देवताओं की क्रीड़ा) है, जो हिंदू देवी-देवताओं को समर्पित किया गया है। मैबिस या पुरोहित गाँव के कुल देवताओं का आह्वान करते है| इनके पारंपरिक नृत्य में ब्रह्माण्ड, दुनिया के निर्माण, मानव शारीर और मानवीय गतिविधियों का वर्णन किया जाता है|
पंद्रहवीं सदी के बंगाली वैष्णव, हिंदू धर्म का एक भक्ति पंथ, को मणिपुर में अभिव्यक्ति मिली और यह राजा भाग्यचन्द्र के शासनकाल के दौरान 1764 में राज्य धर्म बन गया। इसलिए वैष्णव धार्मिक विषयों, जैसे कृष्ण के बचपन की शरारतों की कहानियां और राधा के साथ दिव्य प्रेम, मणिपुर के दो नृत्य रूपों, संकीर्तन और रासलीला की विषय सामग्री में पाया जाता है|
मणिपुरी नृत्य मंदिर प्रांगणों में रत भर चलने वाला प्रदर्शन होता है| संकीर्तन कान छेदने, विवाह समारोह, अंत्येष्टि, बच्चे के जन्म के समय या बच्चे को पहली बार भोजन देने, के अवसरों पर किया जाता है। मणिपुरी नृत्य के गुरुओं ने अपने स्वयं के ताल को विकसित करके इसके संगीत को और समृद्ध और आकर्षक बनाया है| इसमें महिलाओं के दो समूह जिन्हें नुपी भाषक कहते हैं, द्वारा गीत गया जाता है| इसमें मध्ययुगीन काल के वैष्णव कवियों की मूल रचनाओं जैसे चंडीदास, विद्यापति और जयदेव, की रचनाओं का मेईतेई भाषा (मणिपुरी भाषा) में अनुवाद करके, इनका प्रयोग किया जाता है| मणिपुरी नृत्य ज्यादातर समूह में ही होते हैं परन्तु रासलीला के कुछ नृत्यों का एकल प्रदर्शन भी होता है| नत्संकिर्तन का रासलीला से पहले प्रदर्शन किया जाता है| बसंतरस, कुंजरस, महारस और नित्यरस, रासलीला के विभिन्न प्रारूप हैं, जो विशिष्ट उत्सवों पर प्रदर्शित किये जाते हैं|
चोतोम्बी सिंह ने मणिपुर में हिरणों के गायब हो जाने वाली प्रजातियों के बारे में कैबुल लमजाओ नृत्य किया है। प्रीति पटेल ने पारंपरिक मणिपुरी नृत्य में थांग-टा, एक प्रकार की मार्शल आर्ट, का संयोजन भी किया है| गुरु अमोबी सिंह और उनके शिष्य
महाबीर, जमुना देवी, ओझा बाबू सिंह, राजकुमार सिंहजीत सिंह, उसकी पत्नी चारु सिजा, प्रिया गोपाल साना, गुरु बिपिनसिंह की पत्नी कलावती देवी, उनकी बेटी बिम्बावती, झावेरी बहनें और प्रीति पटेल सभी मणिपुरी नृत्य के जाने माने कलाकार हैं|
मोहिनीअट्टम Mohiniyattam or Mohini Attam
मोहिनीअट्टम का अर्थ है "जादूगरनी का नृत्य," जो केवल महिला नर्तकियों द्वारा किया जाने वाला केरल का एकल नृत्य रूप है| तमिलनाडु की देवदासियां मंदिरों में नृत्य का प्रदर्शन करती थी, परन्तु केरल में महिला नर्तकियां केवल सुचिन्द्रम और त्रिपुनिथुरा मंदिरों से जुड़ी थीं। इस नृत्य का उल्लेख 934 ई. के नेदुमपुरा तली शिलालेखों में मिलता है| उन्नीसवीं सदी के एक कवि राजा स्वाति तिरुनल के दरबार में दो नृत्य गुरुओं और भाइयों सिवानन्दम् और वाडिवेलु को शाही संरक्षण प्राप्त हुआ, और उन्होंने भरत नाट्यम के समान मोहिनीअट्टम के एकल प्रदर्शन के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया l केरल के सुंदर परिदृश्य, नारियल लहराते पेड़, इसके लैगून के पानी पर विचरण करती नौकायें मोहिनीअट्टम के कोमल नृत्य पैटर्न में परिलक्षित होते है| मोहिनीअट्टम नृत्य का प्रारंभ चोल्केत्तु के गायन के साथ शुरू होता है| पारंपरिक रूप में मोहिनीअट्टम नृत्य में भगवान विष्णु के सागर-मंथन की कथा का मंचन होता है, जिसमे वे सागर मंथन के दौरान मोहिनी का रूप धारण करके भस्मासुर का विनाश करते हैं|
कवि वल्लथोल ने 1936 में जब कला मंडलम की स्थापना कथकली के प्रशिक्षण के लिए की थी, तब उन्होंने इसके साथ मोहिनीअट्टम की परंपरा को भी जीवित रखा| कल्याणी, माधवी, और कृष्णा पणिक्कर जैसे कलाकारों ने यहाँ प्रक्षिक्षण दिया| शातना राव, सत्यभामा, क्षेमव्ति और सुगंधि इस नृत्य के जाने माने कलाकार हैं| कनक रेले और भारती शिवाजी जैसे कलाकारों ने इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण का उपयोग करके इसे नयी लोकप्रियता दी|
ओडिसी Odissi
नाट्यशास्त्र में ओडिसी के विकास के प्राम्भिक चरण में इसे ओद्र नृत्य कहा जाता था| ईसा पूर्व पहली सदी के उड़ीसा के उदयगिरि पहाड़ियों की रानीगुम्फा गुफा की मूर्तिकला से एक नर्तकी के इस नृत्य के प्रदर्शन का पता चलता है| ओडिसी नृत्य हिंदू मंदिरों में और शाही दरबार दोनों में विकसित हुआ था। उड़ीसा के असंख्य मंदिरों और तेरहवीं सदी के कोणार्क मंदिर में बने नाट्यमंडप से ओडिसी नृत्य की एक महत्वपूर्ण परंपरा का पता चलता है| उड़ीसा में ग्यारहवें सदी के ब्रह्मेश्वर मंदिर के शिलालेखीय सबूतों में, उस समय उड़ीसा में महारिस या नृत्य दासियों (उड़ीसा की देवदासियां), के समर्पण का उल्लेख है। तेरहवीं सदी के अनंतवासुदेव मंदिर में भी इनका उल्लेख मिलता है| ओडिसी नृत्य का, पुरी के जगन्नाथ मंदिर के आंतरिक गर्भगृह में केवल देवताओं के लिए केवल प्रदर्शन किया जाता था|
महेश्वर महापात्रा द्वारा रचित पंद्रहवीं सदी के अभिनय पाठ चंद्रिका, ओडिसी नृत्य की विशेषताओं उल्लिखित करता है| ओडिसी नृत्य में एक उल्लेखनीय मूर्तिकला की गुणवत्ता पाई जाती है|
ब्रिटिश शासन के दौरान इस नृत्य पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, परन्तु स्वतंत्रता के पश्चात् ओडिसी को अपने गुरुओं द्वारा पुनर्जीवित किया गया, जिनमे प्रमुख हैं, पंकज चरण दास, केलुचरण महापात्रा, और देबा प्रसाद दास। संजुक्ता पाणिग्रही, प्रियम्बदा मोहंती, कुमकुम मोहंती, मिनाती मिश्रा, और सोनल मानसिंह ओडिसी नृत्य के जाने माने कलाकार हैं।
इसके अलावा चाक्यारकूंतु नृत्य, जिसे सिर्फ सवर्ण हिन्दू ही इसे देख सकते थे, ओट्टनतुल्ललू नृत्य, कृष्णाट्टम नृत्य अथवा कृष्णाअट्टम नृत्य, जिसमे कृष्ण की कहानी का प्रदर्शन किया जाता है, कुट्टीअट्टम अथवा कुटियाट्टम नृत्य भी केरल के सुप्रसिद्ध नृत्य हैं|
यक्षगान कर्नाटक राज्य का लोक नृत्य है, जिसमे पारम्परिक संगीत के साथ रामायण और महाभारत जैसे महान ग्रंथों से ली गई युद्ध संबंधी विषय वस्तुओं के साथ प्रदर्शित किया जाता है| इसे आम तौर पर धान के खेतों में रात के समय प्रदर्शित किया जाता है|
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