Saturday, 5 November 2016

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देशबंधु चित्तरंजनदास (1870-1925 ई.) सुप्रसिद्ध भारतीय नेता, राजनीतिज्ञ, वकील, कवि तथा पत्रकार थे। उनके पिता का नाम श्री भुवनमोहन दास था, जो सॉलीसिटर थे और बँगला में कविता भी करते थे।
सन्‌ 1890 ई. में बी.ए. पास करने के बाद चितरंजन दास आइ.सी.एस्‌. होने के लिए इंग्लैंड गए और सन्‌ 1892 ई. में बैरिस्टर होकर स्वदेश लौटे। शुरू में तो वकालत ठीक नहीं चली। पर कुछ समय बाद खूब चमकी और इन्होंने अपना तमादी कर्ज भी चुका दिया।
वकालत में इनकी कुशलता का परिचय लोगों को सर्वप्रथम 'वंदेमातरम्‌' के संपादक श्री अरविंद घोष पर चलाए गए राजद्रोह के मुकदमे में मिला और मानसिकतला बाग षड्यंत्र के मुकदमे ने तो कलकत्ता हाईकोर्ट में इनकी धाक अच्छी तरह जमा दी। इतना ही नहीं, इस मुकदमे में उन्होंने जो निस्स्वार्थ भाव से अथक परिश्रम किया और तेजस्वितापूर्ण वकालत का परिचय दिया उसके कारण समस्त भारतवर्ष में 'राष्ट्रीय वकील' नाम से इनकी ख्याति फैल गई। इस प्रकार के मुकदमों में ये पारिश्रमिक नहीं लेते थे।
इन्होंने सन्‌ 1906 ई. में कांग्रेस में प्रवेश किया। सन्‌ 1917 ई. में ये बंगाल की प्रांतीय राजकीय परिषद् के अध्यक्ष हुए। इसी समय से वे राजनीति में धड़ल्ले से भाग लेने लगे। सन्‌ 1917 ई. के कलकत्ता कांग्रेस के अध्यक्ष का पद श्रीमती एनी बेसंट को दिलाने में इनका प्रमुख हाथ था। इनकी उग्र नीति सहन न होने के कारण इसी साल श्री सुरेंद्रनाथ बनर्जीतथा उनके दल के अन्य लोग कांग्रेस छोड़कर चले गए और अलग से प्रागतिक परिषद् की स्थापना की। सन्‌ 1918 ई. की कांग्रेस में श्रीमती एनी बेसंट के विरोध के बावजूद प्रांतीय स्थानिक शासन का प्रस्ताव इन्होंने मंजूर करा लिया औररौलट कानून का जमकर विरोध किया। पंजाब कांड की जाँच के लिए नियुक्त की गई कमेटी में भी इन्होंने उल्लेखनीय कार्य किया। इन्होंने महात्मा गांधी के सत्याग्रह का समर्थन किया। लेकिन कलकत्ते में हुए कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में इन्होंने उनके असहयोग के प्रस्ताव का विरोध किया। नागपुरअधिवेशन में इन्होंने उनके असहयोग के प्रस्ताव का विरोध किया। नापुर अधिवेशन में ये 250 प्रतिनिधियों का एक दल इस प्रस्ताव का विरोध करने के लिए ले गए थे, लेकिन अंत में इन्होंने स्वयं ही उक्त प्रस्ताव सभा के सम्मुख उपस्थित किया। कांग्रेस के निर्णय के अनुसार इन्होंने वकालत छोड़ दी और अपनी सारी सपत्ति मेडिकल कॉलेज तथा स्त्रियों के अस्पताल को दे डाली। इनके इस महान्‌ त्याग को देखकर जनता इन्हें 'देशबंधु' कहने लगी।
असहयोग आंदोलन में जिन विद्यार्थियों ने स्कूल कॉलेज छोड़ दिए थे उनके लिए इन्होंने ढाका में 'राष्ट्रीय विद्यालय' की स्थापना की। आसाम के चाय बागानों के मजदूरों की दु:स्थिति ने भी कुछ समय तक इनका ध्यान आकर्षित कर रखा था।
सन्‌ 1921 ई. में कांग्रेस ने असहयोग आंदोलन के लिए दस लाख स्वयंसेवक माँगे थे। उसकी पूर्ति के लिए इन्होंने प्रयत्न किया और खादी विक्रय आदि कांग्रेस के कार्यक्रम को संपन्न करना आरंभ कर दिया। आंदोलन की मजबूत होते देखकर ब्रिटिश सरकार ने इसे अवैध करार दिया। ये सपत्नीक पकड़े गए और दोनों को छह छह महीने की सजा हुई। सन्‌ 1921 ई. में अहमदाबाद कांग्रेस के ये अध्यक्ष चुने गए। लेकिन ये उस समय जेल में थे अतएव इनके प्रतिनिधि के रूप में हकीम अजमल खाँ ने अध्यक्ष का कार्यभार सँभाला। इनका अध्यक्षीय भाषण श्रीमती सरोजिनी नायडू ने पढ़कर सुनाया। ये जब छूटकर आए उस समय आंदोलन लगभग समाप्त हो चुका था। बाहर से आंदोलन करने के बजाए इन्होंने कांउसिलों में घुसकर भीतर से अड़ंगा लगाने की नीति की घोषणा की। गया कांग्रेस में ये अध्यक्ष थे लेकिन इनका यह प्रस्ताव वहाँ स्वीकार न हो सका। अतएव इन्होंने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया और स्वराज्य दल की स्थापना की। कांग्रेस को उनकी नीति माननी पड़ी और उनका कांउसिल प्रवेश का प्रस्ताव सितंबर, 1923 ई. में दिल्ली में हुए कांग्रेस के अतिरिक्त अधिवेशन में स्वीकार हो गया।
प्रस्ताव के अनुसार ये काउंसिल में घुसे। इनका दल बंगाल काउंसिल में निर्विरोध चुना गया। इन्हांने मंत्रिमंडल बनाना अस्वीकार कर दिया और मंत्रियों के वेतनों को मान्यता देना नामंजूर कर मांटफोर्ड सुधारों की दुर्गति कर डाली। सन्‌ 1924-25 में इन्होंने कलकत्ता नगर महापालिका में अपने पक्ष के काफी लोग घुसाए और स्वयं मेयर हुए।
इन दिनों कांग्रेस पर इनके स्वराज्य दल का पूरा कब्जा था और ये स्वयं उसके कर्ता-धर्ता थे। पटना के अधिवेशन में इन्होंने कांग्रेस की सदस्यता के लिए सूत कातने की अनिवार्य शर्त को ऐच्छिक करार दिया। लगभग इसी समय गोपीनाथ साहा नामक एक बंगाली व्यक्ति ने एक अंग्रेज की हत्या की और सरकार तथा इनके दल में झगड़ा शुरू हुआ। सरकार ने एक विज्ञप्ति प्रकाशित की और संदेह में 80 लोगों की पकड़ा। कलकत्ता कार्पोरेशन ने भी सरकार की इस नीति का विरोध किया।
सन्‌ 1924 में बंगाल की प्रांतीय परिषद् ने गोपीनाथ साहा के त्याग की प्रशंसा की तथा अभिनंदन का प्रस्ताव स्वीकार किया और इन्होंने उसे मान्यता दी। लेकिन इनकी इस नीति का भारत में तथा इंग्लैंड में गलत अर्थ लगाया गया।
सन्‌ 1925 में उपर्युक्त सरकारी विज्ञप्ति की मुख्य धाराएँ बंगाल क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट बिल में सम्मिलित की गईं। स्वराज्य दल ने बिल अस्वीकार कर दिया किंतु सरकार ने अपने विशेष अधिकार से कानून पास करा लिया। इन्होंने राजनीतिक शस्त्र के रूप में हिंसा का प्रयोग करने की कटु आलोचना की और इस संबंध में दो पत्रक प्रकाशित किए। साथ ही इसी प्रकार का एक पत्रक इन्होंने सरकार के पास भी भेजा। सरकार ने इसे सहयोग की ओर पहला कदम समझा। इस दृष्टि से दोनों पक्षों में कुछ वार्ता शुरू होने की संभावना समझी जा रही थी कि 6 जून 1925 को इनका देहावसान हो गया।
श्री चित्तरंजनदास के व्यत्तित्व के कई पहलू थे। वे उच्च कोटि के राजनीतिज्ञ तथा नेता तो थे ही, वे बँगला भाषा के अच्छे कवि तथा पत्रकार भी थे। बंगाल की जनता इनके कविरूप का बहुत आदर करती थी। इनके समय के बंग साहित्य के आंदोलनों में इनका प्रमुख हाथ रहा करता था। 'सागरसंगीत', 'अंतर्यामी', 'किशोर किशोरी' इनके काव्यग्रंथ हैं। 'सांगरसंगीत' का इन्होंने तथा श्री अरविंद घोष ने मिलकर अंग्रेजी में 'सांग्ज़ आव दि सी' नाम से अनुवाद किया और उसे प्रकाशित किया। 'नारायण' नामक वैष्णव-साहित्य-प्रधान मासिक पत्रिका इन्होंने काफी समय तक चलाई। सन्‌ 1906 में प्रारंभ हुए 'वंदे मातरम्‌' नामक अंग्रेजी पत्र के संस्थापक मंडल तथा संपादकमंडल दोनों के ये प्रमुख सदस्य थे और बंगाल स्वराज्य दल का मुखपत्र 'फार्वर्ड' तो इन्हीं की प्रेरणा और जिम्मेदारी पर निकला तथा चला।
राजनीतिक नेता के लिए आवश्यक सतत जूझते रहने का गुण इनमें प्रचुर मात्रा में विद्यमान था। ये परम त्यागी वृत्ति के महापुरुष थे। इन्होंने कवि का संवेदनक्षम हृदय और सज्जनोचित उदारता पाई थी। विरुद्ध पक्ष का मर्म-स्थान ढूँढ निकालने की असाधारण कुशलता इनमें थी। एक बार निश्चय कर लेने के बाद उसे कार्यान्वित करने के लिए ये निरंतर प्रयत्नशील रहते थे। इन्हें असाधारण लोकप्रियता मिली। बेलगाँव कांग्रेस में इन्होंने यह इच्छा व्यक्त की थी कि 148 नंबर, रूसा रोड, कलकत्ता वाला इनका मकान स्त्रियों और बच्चों का अस्पताल बन जाए तो उन्हें बड़ी शांति मिलेगी। उनकी मृत्यु के बाद महात्मा गांधी ने सी.आर. दस स्मारक निधि के रूप में दस लाख रुपए इकट्ठे किए और भारत के इस महान्‌ सुपुत्र की यह अंतिम इच्छा पूर्ण की।

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