नोटबंदी के नफा-नुकसान
आठ नवंबर, 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 500 और1000 रुपये के नोटों को बंद करने की घोषणा कर काले धन के खिलाफ भारत में अब तक का सबसे कठोर फैसला लिया। बंद हुए नोटों का कुल मूल्य 14.2 लाख करोड़ रुपये है, जो कि 31 मार्च, 2016 के आंकड़ों के अनुसार चलन में मौजूद कुल नोटों का 86.4 प्रतिशत है। इस कदम का उद्देश्य काला धन रखने वालों को सबक सिखाना है और नशे के कारोबार तथा तस्करी, आतंकवाद और उग्रवाद की गतिविधियों के लिए अवैध लेन-देन को ध्वस्त करना है। उत्तर प्रदेश और पंजाब में आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए नकदी पर निर्भर राजनीतिक दलों के लिए भी यह फैसला हानिकारक हो सकता है। हालांकि अवैध लेन-देन पर हुए इस हमले ने वैध लेन-देन को जिस पैमाने पर प्रभावित किया है,उसकी शायद कल्पना भी नहीं की गई थी। दरअसल इस नोटबंदी से नकदी पर निर्भर कंपनियों और परिवारों की धन आपूर्ति में 86 प्रतिशत की भीषण कटौती हो गई है। साल1978 में जब 1000 रुपये से ऊपर के नोट बंद हुए थे, तब भारत की प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय 1642 रुपये थी और बंद हुए बड़े वर्ग के नोट आम चलन में नहीं थे। वर्तमान में 500और 1000 रुपये के नोटों की बंदी ऐसे समय में हुई है जब भारत की प्रति व्यक्ति आय करीब 93000 रुपये है। एक500 रुपये का नोट दिल्ली में एक अकुशल श्रमिक की संभवत: एक दिन और आधे दिन की मजदूरी को दर्शाता है। खाने-पीने की कीमतों को देखते हुए पांच सदस्यों का एक परिवार अपनी दैनिक जरूरतों की पूर्ति के लिए कम से कम पांच सौ रुपये प्रतिदिन खर्च करता है। ये नोट क्या गरीब-क्या अमीर आज लगभग सभी लोगों द्वारा प्रयोग में लाए जाते हैं। ऐसे में इनकी अचानक बंदी से किस तरह की अफरा-तफरी मची है, यह इन दिनों हम अपने चारो ओर देख रहे हैं। आखिर वे कौन लोग हैं जो धन आपूर्ति में 86 प्रतिशत कटौती से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं? दरअसल वे सभी छोटे उत्पादक हैं जो बैंकिंग या दूसरी प्रत्यक्ष भुगतान प्रणाली के बजाय नकदी में खरीद-बिक्री करते हैं। देश में अभी ऐसे लोगों की संख्या कितनी है? 2010-11 के कृषि जनगणना के अनुसार देश में क्रियाशील जोतों की संख्या 13.8 करोड़ है। इसके साथ-साथ 2014-15 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार 5.6 करोड़ उत्पादन या सेवा प्रदान करने वाले प्रतिष्ठान हैं, जहां पांच या इससे कम लोग कार्यरत हैं। इस प्रकार नकदी पर निर्भर अप्रत्यक्ष सेक्टर प्रतिष्ठानों की संख्या करीब 20 करोड़ बैठती है। यदि इनमें से प्रत्येक प्रतिष्ठान में एक परिवार के करीब पांच सदस्य भी अपनी जीविका के लिए नकदी पर निर्भर हों तो हम पाते हैं कि करीब 100करोड़ जनता या हमारी कुल आबादी का करीब 80 प्रतिशत हिस्सा नोटबंदी से प्रभावित हुआ है। यह नोटबंदी कितने दिनों तक तकलीफ देगी? यह हम नए नोटों को कितनी तेजी से अर्थव्यवस्था में प्रवाहित करते हैं, इस पर निर्भर करेगा। बैंक और उनके कर्मचारी विशाल मात्रा में नोटों की अदला-बदली की प्रक्रिया को सफल बनाने के लिए जी जान से जुटे हुए हैं। पहले चार दिनों में ही करीब तीन लाख करोड़ रुपये के मूल्य के बराबर 500 और 1000 के पुराने नोट बैंकों में जमा किए गए और विभिन्न खातों के जरिए उपभोक्ताओं को करीब50000 करोड़ रुपये वितरित किए गए। अनुमान है कि सुचारु लेन-देन के लिए करीब दस लाख करोड़ रुपये के बराबर इन बड़े मूल्य वर्ग के नोटों की जरूरत है। और रिजर्व बैंक की नोट छापने की वर्तमान गति को देखते हुए इतनी बड़ी मात्रा में नोटों को अर्थव्यवस्था में प्रवाहित करने में करीब80 दिन लगेंगे। हालांकि जैसे-जैसे नए नोटों की उपलब्धता बढ़ेगी वैसे-वैसे नए नोटों के प्रवाह में भी तेजी आ सकती है और लोगों की तकलीफ कुछ हद तक इससे पहले ही दूर हो सकती है। इसका तात्कालिक प्रभाव दैनिक या साप्ताहिक मजदूरी पर काम करने वाले अप्रत्यक्ष सेक्टर और गरीब परिवारों पर पड़ा है। नकदी लेन-देन में आए इस व्यवधान का पूरी अर्थव्यवस्था पर प्रभाव भी महत्वपूर्ण है। कहा जाता है कि ट्रकों के परिवहन के दौरान होने वाला 80 प्रतिशत लेन-देन नकद आधारित है। यही वजह है कि इन दिनों बड़ी संख्या में ट्रक जहां-तहां फंसे हुए हैं, क्योंकि ड्राइवर पेट्रोल, भोजन और यहां तक कि घूस के लिए जरूरी नकद के अभाव में रास्ते में अटक गए हैं। ट्रकोंं के पहिए थमने से उत्पादन और कीमतें प्रभावित होंगी। रबी फसल की बुआई का सत्र आरंभ हो गया है। ऐसे में यह समय अधिकांश नकद पर आधारित कृषि अर्थव्यवस्था के लिए काफी चुनौतीपूर्ण है। बीजों से लेकर खादों तथा कीटनाशकों की खरीदारी, कृषि श्रमिकों की मजदूरी का भुगतान और उत्पादों की बिक्री आदि सभी नकद में होता है। ऐसी खबरें हैं कि नकदी की कमी के कारण कृषि उत्पाद बाजार समितियां बंद पड़ी हैं। जाहिर है, इसके समग्र प्रभाव की पड़ताल करें तो पाएंगे कि आने वाले दिनों में नोटबंदी से जरूरी वस्तुओं की कीमतें बढ़ सकती हैं और उपभोक्ताओं को अपने घरेलू खर्च में बढ़ोतरी का सामना करना पड़ सकता है। अब सवाल यह है कि क्या इससे काले धन की अर्थव्यवस्था नियंत्रित होगी? साल 2015-16 में भारत की राष्ट्रीय आय 134 लाख करोड़ रुपये थी और इसमें500 और 1000 रुपये के नोटों का हिस्सा करीब 10प्रतिशत है। 31 दिसंबर तक हम नहीं जान पाएंगे कि इसमें से कितने नोट वैध तरीके से कमाए गए हैं और कितने अवैध तरीके से। लेकिन कहा जा रहा है कि इसका करीब 20प्रतिशत हिस्सा प्रथम चार दिनों में बैंकों में जमा करा दिया गया है। देश में काले धन का अधिकांश हिस्सा या तो रियल इस्टेट या सर्राफा बाजार या विदेशी बैंकों में जमा के रूप में है। जब तक हम जड़ पर प्रहार नहीं करेंगे तब तक काले धन की अर्थव्यवस्था से पीछा नहीं छुड़ा सकेंगे और इसकी जड़ कर चोरी, राजनीतिक उगाही और भ्रष्टाचार में निहित है। नोटबंदी के दीर्घकालीन प्रभाव क्या होंगे? यदि अप्रत्यक्ष सेक्टर और कीमतों पर इसके प्रतिकूल प्रभाव को ठीक ढंग से नियंत्रित नहीं किया गया तो यह कदम अल्पकालिक आर्थिक मंदी का कारण भी बन सकता है या यदि नकदी का अभाव कुछ हफ्ते तक बना रहता है तो यह दौर लंबा भी खिंच सकता है। सकारात्मक असर की बात करें तो अर्थव्यवस्था में नकदी की कमी की स्थिति बनी रहने से बैंकिंग सेक्टर, क्रेडिट कार्ड और इलेक्ट्रॉनिक लेन-देन के विस्तार को गति मिल सकती है। यदि नए नोटों के जरिये अवैध लेन-देन को रोकने के लिए कड़े कदम उठाए जाते हैं तो संपत्ति और सर्राफा बाजारों की सफाई के साथ ही अनाप-शनाप खर्चों पर अंकुश लगेगा और आतंकवाद, उग्रवाद पर प्रहार से देश को दीर्घकाल में लाभ मिलेगा। सरकार को अब चाहिए कि वह इसका राजनीतिक लाभ लेने के बजाय लाइन में खड़े लोगों की तकलीफों को दूर करने पर अपना ध्यान केंद्रित करे!
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