Tuesday, 13 June 2017

कला और संस्कृति (मूर्तिकला)

#कला और #संस्कृति भाग-2

प्रीलिस्म और Gs-1 के लिए  अतिमहत्वपूर्ण
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#गांधार_मूर्तिकला_शैली 

मूर्तिकला शैली की सबसे उत्कृष्ट मूर्ति वह है- जिसमें बुद्ध को एक योगी के रूप में बैठे हुए दिखाया गया था। एक सन्न्यासी के वस्त्र पहने उनका मस्तक इस तरह से दिखायी दे रहा है। जैसे उसमें आध्यात्मिक शक्ति बिखर रही हो, बड़ी-बड़ी आँखे, ललाट पर तीसरा नेत्र और सिर पर उभार। ये तीनों संकेत यह दिखाते हैं कि वह सब सुन रहे हैं, सब देख रहे हैं और सब कुछ समझ रहे हैं।


बुद्ध के तीन रूप

यद्यपि बुद्ध के ये तीनों रूप विदेशी कला द्वारा भी प्रभावित हैं। बहरहाल शुद्ध रूप से भारतीय प्रतीत होती यह मूर्ति यह दर्शाती है कि कला घरेलू और विदेशी तत्वों का मिलाजुला रूप है। गांधार क्षेत्र की कला के जो महत्त्वपूर्ण तत्व हैं और उनकी जो शक्ति है- वह उत्तर पश्चिमी भारत की बौद्ध कला में देखी जा सकती है और यह प्राचीन देवताओं का प्रतिनिधित्व एवं उनके रूप दिखाती हैं। इसी तरह का प्रभाव खुदाई से निकले पत्थरों में भी देखा जा सकता है, यह पत्थर चाहे अपनी कलात्मक शैली या अपने दैवीय रूप को दिखाते हों लेकिन उनका रोमन वास्तुकला से साम्राज्यवादी समय से ही गहरा संबंध रहा है, मूर्ति की स्थिति, शरीर का आकार और उसका वास्तु ढांचा स्पष्टत: रोमन मॉडल पर ही आधारित है।

स्थापत्य कला

गांधार स्थापत्य कला की अनेक कला कृतियाँ बुद्ध के जीवन काल से जुड़ी हुई हैं अथवा बुद्ध की अन्य भावभंगिमाओं को लेकर बनायी गयी हैं। बुद्ध की मूर्तियों में अधिकांशत उन्हें हमेशा सन्न्यासी वस्त्रों में ही दिखायी गया है, जिनके बाल छोटे थे। बोधिसत्व अथवा बौद्ध सन्न्यासियों को शरीर के ऊपरी भाग में नि:वस्त्र दिखाया जाता रहा जो लुंगी, गमछा और आभूषण पहने रहते थे, उनके बाल लंबे दिखाये गये हैं। एशिया की सभी बौद्ध कलाओं में,[1] उक्त चीज़ें परिलक्षित हैं। भारतीय संदर्भ में गांधार की शैली एक अलग रंग लिये हुए है। गुप्त काल की बुद्ध मूर्तियों आध्यात्मिक छवि का अभाव है तथापि यह यह कहना न्यायोचित होगा कि वे मूर्तियाँ, सुन्दर, सुसज्जित एवं सजीवता लिये हुए हैं।

गांधार शैली के चरण

गांधार शैली के विकास के दो चरण हैं:

पत्थर निर्मित मूर्तिकला का चरण
महीन प्लास्टर निर्मित कला का चरण जो कि चौथी शताब्दी में भी अनवरत रहा


#पाल_मूर्तिकला_शैली 


पाल शैली की विशेषता इसकी मूर्तियों में परिलक्षित अंतिम परिष्कार है। बिहार और बंगाल के पाल और सेन शासकों के समय में[1] बौद्ध और हिंदू दोनों ने ही सुंदर मूर्तियाँ बनाई।

इन मूर्तियों के लिए काले बैसाल्ट पत्थरों का प्रयोग किया गया है।
मूर्तियां अतिसज्जित और अच्छी पॉलिश की हुई हैं, मानो वे पत्थर की न होकर धातु की बनी हों।
पाल शैली की प्रस्तर मूर्तियाँ नालंदा, राजगीर और बोधगया में मिलती हैं।
मूर्ति शिल्प की दृष्टि से नालंदा कला के तीन चरण माने गए हैं:
बुद्ध और बोधिसत्व की मूर्तियों का महायान चरण
सहजयान मूर्तियाँ
अंतिम कापालोक प्रणाली का कलाचक्र

#भरहुत_मूर्तिकला 
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भरहुत मूर्तिकला

भरहुत मूर्तिकला शुंग काल (ई.पू. मध्य दूसरी शताब्दी) की प्राचीन भारतीय मूर्तिकला है, जिसने मध्य प्रदेश राज्य में भरहुत के विशाल स्तूप को अलंकृत किया। स्तूप अब मुख्यतः नष्ट हो चुका है और अधिकांश मौजूदा अवशेष, जैसे रेलिंग और प्रवेशद्वार, अब कोलकाता के भारतीय संग्रहालय में हैं।

कभी-कभी प्राचीन प्रतीत होने वाली भरहुत शैली बौद्ध वर्णनात्मक उभरे शिल्प और धार्मिक भवनों की सजावत की परंपरा के प्रारंभ को चिह्नित करती है, जो कई शताब्दियों तक सतत रही। भरहुत अवशेषों से लगभग मिलते-जुलते शिल्प सारे उत्तर भारत में मिलते हैं, जो संकेत देते हैं कि भरहुत किसी समय की व्यापक शैली का एकमात्र उत्तरजीवी स्थल है।

अलंकरण का विस्तृत वर्णन और तनी हुई मुद्रा वाली प्रतिमाएँ संकेत करती हैं कि यह शैली लकड़ी से आरंभ हुई और बाद में पत्थर पर जारी रही। स्तंभों में से कुछ पर यक्ष और यक्षिणी (प्रकृति के नर और नारी देवता) की उभरी हुई खड़ी आकृतियाँ है; वृक्ष का आलिंगन किए हुई महिला का बिंब बहुतायत से मिलता है।

पत्थर की बाड़ गोलाकार फलकों और पद्मभूषणों से अलंकृत है, जिनमें से कुछ के केंद्र में एक नर या नारी का मस्तक है। स्तूप और बाड़ों पर जातक कथाएँ (बुद्ध के पूर्व जन्मों की किंवदंतियाँ) और बुद्ध के जीवन की घटनाएँ भी चित्रित हैं। चूंकि ये नामांकित हैं, बौद्ध प्रतिमा विज्ञान को समझने के लिए भरहुत मूर्तिकला अनिवार्य है। पहली शताब्दी ई.पू. के पहले के सभी आरंभिक भारतीय शिल्पों की तरह बुद्ध को एक चक्र, रिक्त सिंहासन या छतरी जैसे चिह्नों द्वारा प्रस्तुत किया गया है, मानव रूप में कभी नहीं। भिन्न स्थितियों में भेद करने के प्रयत्न में उपयोग की गई परस्पर व्याप्त आकृतियों के साथ संयोजन सरल, सहज भी है। शिल्पों में दृष्टिगोचर होने वाले प्राणियों को भारतीय कला के सभी युगों के मर्मस्पर्शी, अर्थपूर्ण विशिष्ट गुणों के साथ दर्शाया गया है।

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