Saturday, 17 June 2017

oceanography

महासागरीय नितल के उच्चावच

November 28, 2014   ज्ञानिकी

13 अंकों में अविष्कार/खोज, अंकों में राष्ट्रगानअंकों में संसदअंकों में मुद्राओं तथा 11 अंकों में धरातलीय आकृतियों के पश्चात अब ज्ञानिकी तहत पृथक-पृथक शीर्षकों में जानकारियां प्रदान की जा रही हैं। गत अंकों में परिवहन के विभिन्न घटकों एवं जलमंडल पर जानकारी प्रस्तुत की गई थी। इस अंक में महासागरीय नितल के उच्चावच (Relief of the Ocean Floor) पर जानकारी प्रस्तुत की जा रही है।

महासागर प्रथम श्रेणी का उच्चावच है। यह पृथ्वी के गहरे क्षेत्रों के रूप में वर्गीकृत है तथा इसमें पृथ्वी की विशाल जलराशि संचित है। महाद्वीपों के विपरीत महासागर एक दूसरे से स्वाभाविक रूप में इतने करीब हैं कि उनका सीमांकन करना कठिन हो जाता है। फिर भी भूगोलविदों ने पृथ्वी के महासागरीय भाग को पांच महासागरों में विभाजित किया है। जिनके नाम हैं- प्रशांत, अटलांटिक, हिंद, दक्षिणी एवं आर्कटिक।

जिस प्रकार स्थलीय भाग पर पर्वत, पठार व मैदान आदि पाए जाते हैं, उसी प्रकार महासागरीय नितल पर भी विभिन्न प्रकार की आकृतियां पाई जाती हैं।

महासागरीय नितल अथवा अधस्तल को चार प्रमुख भागों में बांटा जा सकता है-(i) महाद्वीपीय मग्नतट (Continental Shelf) (ii) महाद्वीपीय मग्नढाल (Continental Slope), (iii) गहरे समुद्री मैदान (Deep Sea Plain) तथा (iv) महासागरीय गर्त (Oceanic Deeps)।

महाद्वीपीय मग्नतट

यह महासागर का सबसे उथला भाग होता है जिसकी औसत प्रवणता 1 डिग्री या उससे भी कम होती है।महाद्वीपीय मग्नतटों की चौड़ाई में एक महासागर से दूसरे महासागर के बीच भिन्नता पाई जाती है।यहां पर अवसादों की मोटाई भी अलग-अलग होती है।यहां लंबे समय तक प्राप्त स्थूल तलछट अवसाद जीवाश्मी ईंधनों के स्रोत बनते हैं।समुद्र में जो भी प्राकृतिक गैसों एवं पेट्रोलियम के भंडार पाए गए हैं, उन सबका संबंध महाद्वीपीय मग्न तट से ही है।यह महासागरीय नितल के 8.6 प्रतिशत भाग पर फैले हैं।

महाद्वीपीय मग्नढाल

मग्नतट तथा सागरीय मैदान के बीच तीव्र ढाल वाले मंडल को ‘महाद्वीपीय मग्नढाल’ कहते हैं।इसकी ढाल प्रवणता मग्नतट के मोड़ के पास से सामान्यतः 4o से अधिक होती है।मग्नढाल पर जल की गहराई 200 मीटर से 3000 मीटर के बीच होती है।मग्नढाल समस्त सागरीय क्षेत्रफल के 8.5 प्रतिशत पर फैला है।मग्नढालों पर सागरीय निक्षेप का अभाव पाया जाता है।

गहरे समुद्री मैदान

गहरे समुद्री मैदान महासागरीय बेसिनों के मंद ढाल वाले क्षेत्र होते हैं।इनकी गहराई 3000 से 6000 मीटर तक होती है।समस्त महासागरीय क्षेत्रफल के 70 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र पर इनका विस्तार पाया जाता है। उल्लेखनीय है कि इनका विस्तार भिन्न-भिन्न महासागरों में भिन्न-भिन्न है।प्रशांत महासागर में इनका सर्वाधिक विस्तार है।ये मैदान महीन कणों वाले अवसादों जैसे मृत्तिका एवं गाद से ढके होते हैं।

महासागरीय गर्त

ये महासागर के सबसे गहरे भाग होते हैं।ये महासागरीय नितल के लगभग 7 प्रतिशत भाग पर फैले हैं।आकार की दृष्टि से महासागरीय गर्तों को दो भागों में विभाजित किया जाता है।लंबे गर्त को खाईं (Trench) जबकि कम क्षेत्रफल वाले किंतु अधिक गहरे गर्त को गर्त (Deeps) कहते हैं।विश्व का सबसे गहरा गर्त (Trench) मेरियाना गर्त है जो प्रशांत महासागर में अवस्थित है।

मध्य महासागरीय कटक (Mid-Ocean Ridge)

मध्य महासागरीय कटक नवीन बेसाल्ट चट्टानों की एक पर्वतीय शृंखला के समान है या फिर यह कह सकते हैं कि ये अंतर्जलीय पर्वत तंत्र के समान हैं जिसमें विविध पर्वत श्रेणियां एवं घाटियां पाई जाती हैं।मध्य अटलांटिक कटक सबसे लंबा महासागरीय कटक है जो उत्तर में आइसलैंड से दक्षिण में बोवेट द्वीप तक अंग्रेजी के ‘S’ अक्षर के आकार में विस्तारित है।

 

 

प्रवाल द्वीप (Atoll)

ये मुख्यतः उष्ण कटिबंधीय महासागरों में पाए जाने वाले प्रवाल भित्तियों द्वारा निर्मित छोटे आकार के द्वीप होते हैं।ये गहरे अवनमन (Depression) को चारों ओर से घेरे रहते हैं।भारत का लक्षद्वीप प्रवाल द्वीप का सुंदर उदाहरण है।

समुद्री टीला (Seamount)

नुकीले शिखरों वाला एक पर्वत जो समुद्री तली से ऊपर की ओर उठता है परंतु महासागरों के सतह तक नहीं पहुंचता है, समुद्री टीला कहलाता है।ये ज्वालामुखी क्रिया द्वारा निर्मित होते हैं।प्रशांत महासागर स्थित एम्परर (Emperor) समुद्री टीला जो हवाईयन द्वीप का विस्तार है, इसका एक अच्छा उदाहरण है।

अंतःसागरीय कन्दरा (Sub-marine Canyons)

महाद्वीपीय मग्नतट तथा मग्नढाल पर संकरी गहरी तथा खड़ी दीवार वाली घाटियों को महासागर के अंदर होने के कारण ‘अंतःसागरीय कन्दरा’ अथवा ‘कैनियन’ कहते हैं।हडसन कैनियन विश्व का सबसे चर्चित अंतःसागरीय कैनियन है जबकि स्थल भाग पर सबसे चर्चित कैनियन कोलोराडो नदी द्वारा निर्मित ग्रैंड कैनियन है।

निमग्न द्वीप (Guyots)

यह चपटे शिखर वाले एक प्रकार के समुद्री टीले ही होते हैं।इनका निर्माण भी ज्वालामुखी क्रिया के परिणामस्वरूप ही होता है।

Share this:

Wednesday, 14 June 2017

रैयतवाड़ी व्यवस्था, महालवाड़ी व्यवस्था

रैयतवाड़ी व्यवस्था
रैयतवाड़ी व्यवस्था

रैयतवाड़ी= रैयत (कृषक)+वाड़ी(बंदोबस्त)

रैयतवाड़ी दो  शब्दों के मेल से बना है, जिसमें रैयत का आशय है, किसान एवं वाड़ी
का आशय है, प्रबंधन अर्थात किसानों के साथ प्रबंधन दूसरे शब्दों में रैयतवारी
व्यवस्था ब्रिटिश कंपनी द्वारा प्रचलित एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें राज्य या सरकार
किसानों के साथ प्रत्यक्ष तौर पर भू राजस्व का प्रबंधन करती है
कहां
मद्रास, बंबई, आसाम, एवं सिंध का क्षेत्र, में यह व्यवस्था प्रचलित थी|
अर्थात भारत में ब्रिटिश सम्राज्य के कुल भूभाग के 51% भूमि पर यह व्यवस्था लागू थी|
किसके द्वारा
रीड(अधिकारी है), मुनरो ,और एलफिस्टन द्वारा|
क्यों
रैयतवाड़ी व्यवस्था के प्रचलन के संदर्भ में मूल रूप से दो विचारधाराएं प्रस्तुत की जाती है
पूंजीवादी विचारधारा
उपयोगितावादी विचारधारा

स्मरणीय है, कि रैयतवाड़ी व्यवस्था के पीछे सबसे अधिक पूंजीवादी विचारधारा तथा
पूंजीवादी विचारधारा का मानवीय चेहरा उपयोगितावादी विचारधारा मुख्य तौर पर
जिम्मेदार था|
इस विचारधारा का केंद्रीय मान्यता था की भूमि के ऊपर उस वर्ग का स्वामित्व
होना चाहिए|
जो उस भूमि में अपना श्रम लगाकर फसलों का उत्पादन करता है और यही
वजह है,की अर्थशास्त्री रिकार्डो के सिद्धांत से प्रभावित होकर जमींदारों को
गैर उत्पादक वर्ग मानते
हुए किसानों को ही भूमिका मालिक स्वीकार किया गया |

इस पद्धति के तहत किसानों के साथ भू राजस्व कर निर्धारण भी रिकार्डो
के सिद्धांत पर ही
आधारित था| जैसे:-
कुल उत्पादन- किसान का कुल लागत= शेष
और उस शेष पर राज्य एवं किसानों के बीच फसल से प्राप्त आय का बंटवारा|

विशेषता

इस पद्धति में भूमि का मालिकाना हक किसानों के पास था |
भूमि को क्रय विक्रय एवं गिरवी रखने की वस्तु बना दी गई|
इस पद्धति में भू राजस्व का दर वैसे तो 1/3 होता था,
लेकिन उसकी वास्तविक वसूली ज्यादा थी|
इस पद्धति में भू-राजस्व का निर्धारण भूमि के उपज पर ना
करके भूमि पर किया जाता था|
इस पद्धति में भी सूर्यास्त का सिद्धांत प्रचलित था|

इस पद्धति का प्रभाव
1.भू राजस्व का निर्धारण भूमि के उत्पादकता पर न करके भूमि पर किया गया,
जो किसान के हित के लिए सही नहीं था|
2.इस पद्धति में भू राजस्व कदर इतना ज्यादा था कि किसान के पास अधिशेष नहीं बसता था|
परिणाम स्वरुप किसान महाजनों के चंगुल में फसते गए और इस तरह यहां पर महाजन ही
एक कृत्रिम जमीदार के रुप में उभर कर आने लगे|
3.इस व्यवस्था ने दोषपूर्ण राजस्व व्यवस्था के कारण किसानो के पास इतना अधिशेष नहीं
बसता था |
जोकि वह कृषि में उत्पादकता बढ़ाने के लिए निवेश कर सके, परिणाम स्वरुप किसान
क्रमशः गरीबी दरिद्रता आदि के कुचक्र में फसते गए|
4.यद्यपि इस व्यवस्था में फसलों के  वाणिज्यिकरण प्रोत्साहन प्राप्त हुआ, लेकिन इसका भी लाभ
किसानों को प्राप्त नहीं हो पाया| यह लाभ सौदागर सरकार एवं महाजन को प्राप्त हो गया|
   
   सब मिलाकर रैयतवारी व्यवस्था अस्थाई बंदोबस्त के सापेक्ष निसंदेह एक प्रगतिशील कदम था,
लेकिन विद्यमान ढांचा साम्राज्यवादी था| जिसका केंद्रीय उद्देश्य था,
" भारतीय अर्थव्यवस्था का शोषण करना| "

महालवाड़ी व्यवस्था
महालवाड़ी व्यवस्था
क्या
कहां
कब
किसके द्वारा
क्यों
विशेषता
समीक्षा

महालवाड़ी शब्द
मारवाड़ी दो शब्द से मिलकर बना हुआ है, जिसमें महाल का अर्थ है, गांव मोहल्ला कस्बा इत्यादि और वाड़ी का आशय है प्रबंधन| अर्थात महलवाड़ी भू राजस्व के पद्धति में एक गांव को ही इकाई मानते हुए ,उसके साथ भू-राजस्व का बंदोबस्त कर दिया गया |इस पद्धति के तहत उस गांव को सामूहिक रुप में अर्थात अपना प्रधान के माध्यम से सरकार को अपना उपज का अंश देना पड़ता था |

कहां
उत्तर प्रदेश मध्य भारत पंजाब इत्यादि के क्षेत्र में यानी कि भारत में ब्रिटिश  कंपनी के कुल भूभाग के 30% भाग जमीन पर इस व्यवस्था पर यह लागू किया गया|[19+51+30]
कब
उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक से इस प्रक्रिया की प्रारंभ हुई जो कालांतर में पंजाब के क्षेत्र के विजय के बाद वहां भी इसे लागू कर दिया गया|
किसके द्वारा
हॉल्ट मैकेंजी , रॉबर्ट बर्ड, जेम्स टॉम सॉन्ग
क्यों
महलवारी व्यवस्था के संदर्भ में भी उपयोगितावादी विचारधारा के प्रभाव को स्वीकार किया जाता है| और इसलिए इस व्यवस्था में भी किसानों के स्वामित्व के साथ छेड़छाड़ नहीं किया, और साथ ही साथ इस व्यवस्था में सिंचाई संसाधनों के विकास पर बल दिया गया |
इसकी विशेषता
1. यह व्यवस्था एक गांव को इकाई मानकर उसके साथ राज्य द्वारा भू राजस्व का प्रबंधन करने के विचार पर आधारित थी|
2. इस व्यवस्था में मध्यस्थ वर्ग का अभाव था, यह व्यवस्था स्थाई न होकर 20 से 30 वर्षों के लिए हुआ करती थी,(अल्पकालिक थी) ,पुनः  इसका निर्धारण होता था इस पद्धति में भी राजस्व कादर अधिकतम था कभी-कभी यह दर 66% तक हो जाता था|
समीक्षा
उल्लेखनीय है, कि महलवाड़ी व्यवस्था में कृषि के क्षेत्र में कुछ सुधार हुए जैसे सिंचाई योजनाओं की शुरूआत, लेकिन सरकार के साम्राज्यवादी स्वरूप होने के कारण इस व्यवस्था के माध्यम से भी किसानों के जीवन में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं हुआ

इजारेदारी प्रथा Izaredari System

1772 में वारेन हेस्टिंग्स ने एक नयी भू-राजस्व पद्धति लागू की, जिसे 'इजारेदारी प्रथा' के नाम से जाना गया है। इस पद्धति को अपनाने का मुख्य उद्देश्य अधिक भू-राजस्व वसूल करना था। इस व्यवस्था की मुख्य दो विशेषतायें थीं-

इसमें पंचवर्षीय ठेके की व्यवस्था थी। तथासबसे अधिक बोली लगाने वाले को भूमि ठेके पर दी जाती थी।

किंतु इस व्यवस्था से कम्पनी को ज्यादा लाभ नहीं हुआ क्योंकि इस व्यवस्था से उसकी वसूली में अस्थिरता आ गयी। पंचवर्षीय ठेके के इस दोष के कारण 1777 ई. में इसे परिवर्तित कर दिया गया तथा ठेके की अवधि एक वर्ष कर दी गयी। अर्थात अब भू-राजस्व की वसूली का ठेका प्रति वर्ष किया जाने लगा। किंतु प्रति वर्ष ठेके की यह व्यवस्था और असफल रही। क्योंकि इससे भू-राजस्व की दर तथा वसूल की राशि की मात्रा प्रति वर्ष परिवर्तित होने लगी। इससे कम्पनी को यह अनिश्चितता होती थी कि अगले वर्ष कितना लगान वसूल होगा। इस व्यवस्था का एक दोष यह भी था कि प्रति वर्ष नये-नये व्यक्ति ठेका लेकर किसानों से अधिक से अधिक भू-राजस्व वसूल करते थे। चूंकि इसमें इजारेदारों (ठेकेदारों या जमींदारों) का भूमि पर अस्थायी स्वामित्व होता था, इसलिये वे भूमि सुधारों में कोई रुचि नहीं लेते थे। उनका मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक लगान वसूल करना होता था। इसके लिये वे किसानों का उत्पीड़न भी करते थे। ये इजारेदार वसूली की पूरी रकम भी कम्पनी को नहीं देते थे। इस व्यवस्था के कारण किसानों पर अत्यधिक बोझ पड़ा। तथा वे कंगाल होने लगे।

यद्यपि यह व्यवस्था काफी दोषपूर्ण थी फिर भी इससे कम्पनी की आय में वृद्धि हुयी।

Tuesday, 13 June 2017

कला और संस्कृति (मूर्तिकला)

#कला और #संस्कृति भाग-2

प्रीलिस्म और Gs-1 के लिए  अतिमहत्वपूर्ण
__________________________________

#गांधार_मूर्तिकला_शैली 

मूर्तिकला शैली की सबसे उत्कृष्ट मूर्ति वह है- जिसमें बुद्ध को एक योगी के रूप में बैठे हुए दिखाया गया था। एक सन्न्यासी के वस्त्र पहने उनका मस्तक इस तरह से दिखायी दे रहा है। जैसे उसमें आध्यात्मिक शक्ति बिखर रही हो, बड़ी-बड़ी आँखे, ललाट पर तीसरा नेत्र और सिर पर उभार। ये तीनों संकेत यह दिखाते हैं कि वह सब सुन रहे हैं, सब देख रहे हैं और सब कुछ समझ रहे हैं।


बुद्ध के तीन रूप

यद्यपि बुद्ध के ये तीनों रूप विदेशी कला द्वारा भी प्रभावित हैं। बहरहाल शुद्ध रूप से भारतीय प्रतीत होती यह मूर्ति यह दर्शाती है कि कला घरेलू और विदेशी तत्वों का मिलाजुला रूप है। गांधार क्षेत्र की कला के जो महत्त्वपूर्ण तत्व हैं और उनकी जो शक्ति है- वह उत्तर पश्चिमी भारत की बौद्ध कला में देखी जा सकती है और यह प्राचीन देवताओं का प्रतिनिधित्व एवं उनके रूप दिखाती हैं। इसी तरह का प्रभाव खुदाई से निकले पत्थरों में भी देखा जा सकता है, यह पत्थर चाहे अपनी कलात्मक शैली या अपने दैवीय रूप को दिखाते हों लेकिन उनका रोमन वास्तुकला से साम्राज्यवादी समय से ही गहरा संबंध रहा है, मूर्ति की स्थिति, शरीर का आकार और उसका वास्तु ढांचा स्पष्टत: रोमन मॉडल पर ही आधारित है।

स्थापत्य कला

गांधार स्थापत्य कला की अनेक कला कृतियाँ बुद्ध के जीवन काल से जुड़ी हुई हैं अथवा बुद्ध की अन्य भावभंगिमाओं को लेकर बनायी गयी हैं। बुद्ध की मूर्तियों में अधिकांशत उन्हें हमेशा सन्न्यासी वस्त्रों में ही दिखायी गया है, जिनके बाल छोटे थे। बोधिसत्व अथवा बौद्ध सन्न्यासियों को शरीर के ऊपरी भाग में नि:वस्त्र दिखाया जाता रहा जो लुंगी, गमछा और आभूषण पहने रहते थे, उनके बाल लंबे दिखाये गये हैं। एशिया की सभी बौद्ध कलाओं में,[1] उक्त चीज़ें परिलक्षित हैं। भारतीय संदर्भ में गांधार की शैली एक अलग रंग लिये हुए है। गुप्त काल की बुद्ध मूर्तियों आध्यात्मिक छवि का अभाव है तथापि यह यह कहना न्यायोचित होगा कि वे मूर्तियाँ, सुन्दर, सुसज्जित एवं सजीवता लिये हुए हैं।

गांधार शैली के चरण

गांधार शैली के विकास के दो चरण हैं:

पत्थर निर्मित मूर्तिकला का चरण
महीन प्लास्टर निर्मित कला का चरण जो कि चौथी शताब्दी में भी अनवरत रहा


#पाल_मूर्तिकला_शैली 


पाल शैली की विशेषता इसकी मूर्तियों में परिलक्षित अंतिम परिष्कार है। बिहार और बंगाल के पाल और सेन शासकों के समय में[1] बौद्ध और हिंदू दोनों ने ही सुंदर मूर्तियाँ बनाई।

इन मूर्तियों के लिए काले बैसाल्ट पत्थरों का प्रयोग किया गया है।
मूर्तियां अतिसज्जित और अच्छी पॉलिश की हुई हैं, मानो वे पत्थर की न होकर धातु की बनी हों।
पाल शैली की प्रस्तर मूर्तियाँ नालंदा, राजगीर और बोधगया में मिलती हैं।
मूर्ति शिल्प की दृष्टि से नालंदा कला के तीन चरण माने गए हैं:
बुद्ध और बोधिसत्व की मूर्तियों का महायान चरण
सहजयान मूर्तियाँ
अंतिम कापालोक प्रणाली का कलाचक्र

#भरहुत_मूर्तिकला 
_______________

भरहुत मूर्तिकला

भरहुत मूर्तिकला शुंग काल (ई.पू. मध्य दूसरी शताब्दी) की प्राचीन भारतीय मूर्तिकला है, जिसने मध्य प्रदेश राज्य में भरहुत के विशाल स्तूप को अलंकृत किया। स्तूप अब मुख्यतः नष्ट हो चुका है और अधिकांश मौजूदा अवशेष, जैसे रेलिंग और प्रवेशद्वार, अब कोलकाता के भारतीय संग्रहालय में हैं।

कभी-कभी प्राचीन प्रतीत होने वाली भरहुत शैली बौद्ध वर्णनात्मक उभरे शिल्प और धार्मिक भवनों की सजावत की परंपरा के प्रारंभ को चिह्नित करती है, जो कई शताब्दियों तक सतत रही। भरहुत अवशेषों से लगभग मिलते-जुलते शिल्प सारे उत्तर भारत में मिलते हैं, जो संकेत देते हैं कि भरहुत किसी समय की व्यापक शैली का एकमात्र उत्तरजीवी स्थल है।

अलंकरण का विस्तृत वर्णन और तनी हुई मुद्रा वाली प्रतिमाएँ संकेत करती हैं कि यह शैली लकड़ी से आरंभ हुई और बाद में पत्थर पर जारी रही। स्तंभों में से कुछ पर यक्ष और यक्षिणी (प्रकृति के नर और नारी देवता) की उभरी हुई खड़ी आकृतियाँ है; वृक्ष का आलिंगन किए हुई महिला का बिंब बहुतायत से मिलता है।

पत्थर की बाड़ गोलाकार फलकों और पद्मभूषणों से अलंकृत है, जिनमें से कुछ के केंद्र में एक नर या नारी का मस्तक है। स्तूप और बाड़ों पर जातक कथाएँ (बुद्ध के पूर्व जन्मों की किंवदंतियाँ) और बुद्ध के जीवन की घटनाएँ भी चित्रित हैं। चूंकि ये नामांकित हैं, बौद्ध प्रतिमा विज्ञान को समझने के लिए भरहुत मूर्तिकला अनिवार्य है। पहली शताब्दी ई.पू. के पहले के सभी आरंभिक भारतीय शिल्पों की तरह बुद्ध को एक चक्र, रिक्त सिंहासन या छतरी जैसे चिह्नों द्वारा प्रस्तुत किया गया है, मानव रूप में कभी नहीं। भिन्न स्थितियों में भेद करने के प्रयत्न में उपयोग की गई परस्पर व्याप्त आकृतियों के साथ संयोजन सरल, सहज भी है। शिल्पों में दृष्टिगोचर होने वाले प्राणियों को भारतीय कला के सभी युगों के मर्मस्पर्शी, अर्थपूर्ण विशिष्ट गुणों के साथ दर्शाया गया है।

Monday, 12 June 2017

Art and culture

अमरावती मूर्तिकला  

अमरावती मूर्तिकला

अमरावती मूर्तिकला एक प्राचीन मूर्तिकला शैली है, जो दक्षिण-पूर्वी भारत में लगभग दूसरी शताब्‍दी ई.पू. से तीसरी शताब्‍दी ई.पू. तक सातवाहन वंश के शासनकाल में फली-फूली। यह अपने भव्‍य उभारदार भित्‍ति चित्रों के लिए जानी जाती है, जो संसार में कथात्‍मक मूर्तिकला का सर्वश्रेष्‍ठ उदाहरण है। यह मूर्तिकला अपनी विशिष्टता और उत्कृष्ट कला-कौशल के कारण काफ़ी प्रसिद्धि पा चुकी थी।

विस्तार क्षेत्र

अमरावती के विशाल स्तूप या स्‍मृति-टीले के खंडहरों के साथ-साथ यह शैली आंध्र प्रदेश के जगय्यापेट,नागार्जुनकोंडा और गोली में तथा महाराष्ट्र राज्‍य के 'तेर के स्‍तूप' के अवशेषों में भी देखी जाती है। यह शैली श्रीलंका(अनुराधापुरा में) और दक्षिण-पूर्व एशिया के कई भागों में भी फैली हुई है।

अमरावती स्तूप

अमरावती स्‍तूप का निर्माण लगभग 200 ई.पू. में प्रारंभ किया गया था और उसमें कई बार नवीनीकरण तथा विस्‍तार हुए। यह स्तूप बौद्ध काल में बनाए गए विशाल आकार के स्‍तूपों में से एक था। इसका व्‍यास लगभग 50 मीटर तथा ऊंचाई 30 मीटर थी, जो अब अधिकांशत: नष्‍ट हो चुकी है। इसके कई पत्‍थर 19वीं सदी में स्‍थानीय ठेकेदारों द्वारा चूना बनाने के काम में ले लिए गए। बचे हुए अनेक कथात्‍मक उभरे चित्र फलक तथा सजावटी फलक अब चेन्नई के राजकीय संग्रहालय और लन्दन के ब्रिटिश म्‍यूजियम में है।

शैली

लंदन में रखे एक चारदीवारी के पत्‍थर पर बनी इस स्‍मारक की एक प्रतिकृति में इसके दूसरी सदी के स्‍वरूप की झलक मिलती है। इसमें एक अर्द्धवत्‍ताकार नीचा स्‍तूप प्रदर्शित है, जो चारों ओर से सूक्ष्‍म नक्‍काशीदार रेलिंग से घिरा हुआ है। चारों दिशा बिंदु पांच-पांच स्‍तंभों से चिन्‍हित हैं, जबकि पुरानी शैली के तोरणों की जगह चारों प्रवेश द्वारों पर सिंह आकृति के शीर्ष वाले अलग-अलग खंभे स्‍थापित हैं। इस क्षेत्र में पाए जाने वाले हरित-श्‍वेत चूने के पत्‍थर पर उभरे भित्‍ति चित्र उकेरे गए हैं। इनमें ज्‍यादातर बुद्ध के जीवन की घटनाएँ या उनके पूर्व जन्‍मों की कथाएँ (जातक कथाएँ) चित्रित हैं। जिन चार शताब्‍दियों के भीतर यह शैली विकसित हुई, वही बुद्ध की अमूर्त से मूर्त प्रतिमाओं के विकास का भी काल था।

चित्राकंन की विधियाँ

अमरावती में चित्रांकन की दोनों विधियाँ एक ही फलक पर साथ-साथ दिखाई देती हैं-

मूर्त रूप - इसमें बैठे या खड़े हुए बुद्ध की प्रतिमा दिखाई गई है।अमूर्त या प्रतीकात्‍मक रूप - इसमें बुद्ध की उपस्‍थिति का प्रतीक ख़ाली सिंहासन है।




Wednesday, 7 June 2017

संविधान संशोधन

#भारतीय_संविधान_के_महत्वपूर्ण_संशोधन

Note - नए संशोधन भी समिल्लित

संविधान के अनुच्छेद 368 में संशोधन की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है. इसमें संशोधन की तीन विधियों को अपनाया गया है:  साधारण विधि द्वारा संशोधन, संसद के विशेष बहुमत द्वारा और संसद के विशेष बहुमत और राज्य के विधान-मंडलों की स्वीकृति से संशोधन I

संविधान संशोधन को तीन विधियों से किया जा सकता है:
(a) साधारण विधि द्वारा संशोधन,
(b) संसद के विशेष बहुमत द्वारा,
(c) संसद के विशेष बहुमत और राज्य के विधान-मंडलों की स्वीकृति से संशोधन.

1. साधारण विधि द्वारा: संसद के साधारण बहुमत द्वारा पारित विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर कानून बन जाता है. इसके अंतर्गत राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति मिलने पर निम्न संशोधन किए जा सकते हैं:
(a) नए राज्यों का निर्माण,
(b) राज्य क्षेत्र, सीमा और नाम में परिवर्तन,
(c) संविधान की नागरिकता संबंधी अनुसूचित क्षेत्रों और जनजातियों की प्रशासन संबंधी तथा केंद्र द्वारा प्रशासित क्षेत्रों की प्रशासन संबंधी व्यवस्थाएं.

2. विशेष बहुमत द्वारा संशोधन: यदि संसद के प्रत्येक सदन द्वारा कुल सदस्यों का बहुमत तथा उपस्थिति और मतदान में भाग लेनेवाले सदस्यों के 2/3 मतों से विधेयक पारित हो जाएं तो राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलते ही वह संशोधन संविधान का अंग बन जाता है. न्यायपालिका तथा राज्यों के अधिकारों तथा शक्तियों जैसी कुछ विशिष्ट बातों को छोड़कर संविधान की अन्य सभी व्यवस्थाओं में इसी प्रक्रिया के द्वारा संशोधन किया जाता है.

3. संसद के विशेष बहुमत और राज्य के विधान-मंडलों की स्वीकृति से संशोधन: संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संशोधन के लिए विधेयक को संसद के दोनों सदनों के विशेष बहुमत तथा राज्यों के कुल विधान मंडलों में से आधे द्वारा स्वीकृति आवश्यक है. इसके द्वारा किए जाने वाले संशोधन के प्रमुख विषय हैं:
(a) राष्ट्रपति का निर्वाचन (अनुच्छेद 54)
(b) राष्ट्रपति निर्वाचन की कार्य-पद्धति (अनुच्छेद 55)
(c) संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार
(d) राज्यों की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार
(e) केंद्र शासित क्षेत्रों के लिए उच्च न्यायालय
(f) संघीय न्यायपालिका
(g) राज्यों के उच्च न्यायालय
(h) संघ एवं राज्यों में विधायी संबंध
(i) सांतवी अनुसूची का कोई विषय
(j) संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व
(k) संविधान संशोधन की प्रक्रिया से संबंधित उपबंध

भारतीय संविधान के महत्वपूर्ण संबिधान संशोधन

तो हम आपको महत्वपूर्ण संविधान संशोधनो के बारे में बता रहे है ! तो चलिये शुरू करते है !

1st संविधान संशोधन (1951) – इसके द्वारा भारतीय संविधान मे 9वी अनुसूची को जोडा गया है।7वाॅ संविधान संशोधन (1956) – इसके द्वारा राज्यों का पुनर्गठन करके 14 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेशों को पुनर्गठित किया गया है।10वाॅ संविधान संशोधन (1961) – इसके द्वारा पुर्तगालियों की अधीनता से मुक्त हुए दादरा और नागर हवेली को भारतीय संघ में शामिल किया गया।12वाँ संविधान संशोधन (1962) – इसके द्वारा गोवा, दमण और दीव का भारतीय संघ में विलय किया गया।14वाॅ संविधान संशोधन (1962) – इसके द्वारा पाण्डेचेरी को केंद्र शासित प्रदेशके रूप में भारत में विलय किया गया।18वाॅ संविधान संशोधन (1966) – इसके द्वारा पंजाब राज्य का पुर्नगठन करके पंजाब, हरियाणा राज्य और चण्डीगढ को केन्द्रशासित प्रदेश बनाया गया।21वाॅ संविधान संशोधन (1967) – इसके द्वारा 8 वी अनुसूची में सिन्धी भाषा को शामिल किया गया24वाँ संविधान संशोधन (1971) – इसके द्वारा संसद को मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने का अधिकार दिया गया है।45वाॅ संविधान संशोधन (1974) – इसके द्वारा सिक्किम को भारतीय सघं में सह राज्य का दर्जा दिया गया36वाॅ संविधान संशोधन (1975) – इसके द्वारा सिक्किम को भारतीय सघं में 22 वे राज्य के रूप में सम्मिलित किया गया।42वाॅ संविधान संशोधन (1976) – यह संविधान संशोधन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाॅधी के समय स्वर्ण सिंह आयोग की सिफारिश के आधार पर किया गया था। यह अभी तक का सबसे बङा संविधान संशोधन है। इस संविधान संशोधन कोलघु संविधान की संज्ञा दी जाती है। इस संविधान संशोधन में 59 प्रावधान थे।1.संविधान की प्रस्तावना में पंथ निरपेक्ष समाजवादी और अखण्डता शब्दों को जोडा गया।2. मौलिक कर्तव्यों को संविधान में शामिल किया गया।3.शिक्षा, वन और वन्यजीव, राज्यसूची के विषयों को समवर्ती सूची में शामिल किया गया।4.लोक सभा और विधान सभा के कार्यकाल को बढाकर 5 से 6 वर्ष कर दिया गया।5.राष्ट्रपति को मंत्रीपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य किया गया।6.ससंद द्वारा किये गये संविधान संशोधन को न्यायालय में चुनौती देने से वर्जित कर दिया गया है44वाँ संविधान संसोधन (1978) –(1) सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों से हटाकर कानूनी अधिकार बना दिया है।(2) लोक सभा और विधान सभा का कार्यकाल पुनः घटाकर 5 वर्ष कर दिया गया।(3) राष्ट्रीय आपात की घोषणा आंतरिक अशान्ति के आधार पर नहीं बल्कि सशस्त्र विद्रोह के कारण की जा सकती है।(4) राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया कि वह मंत्री मण्डल की सलाह को एक बार पुर्नविचार के लिए वापस कर सकता है। लेकिन दूसरी बार वह सलाह मानने के लिए बाध्य होगा।48वाॅ संविधान संशोधन (1984) -संविधान के अनुच्छेद 356 (5) में परिवतर्न करके यह व्यवस्था की गई कि पंजाब में राष्ट्रपति शासन की अवधि को दो वर्ष तक और बढाया जा सकता है।52वाँ संविधान संशोधन (1985) – इसके द्वारा संविधान में 10 वी अनुसूची को जोडकर दल बदल को रोकने के लिए कानून बनाया गया।56वाँ संविधान संशोधन (1987) – इसके द्वारा गोवा को राज्य की श्रेणी में रखा गया।61वाँ संविधान संशोधन (1989) – संविधान के अनुच्छेद 326 में संशोधन करके लोक सभा और राज्य विधान सभाओं में मताधिकार की उम्र 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई।71वाँ संविधान संशोधन (1992) – इसके द्वारा संविधान की 8 वी अनुसची में कोकणी , मणिपुरी, और नेपाली भाषाओं को जोडा गया।73वाँ संविधान संशोधन (1992) – इसके द्वारा संविधान में 11 वी अनुसची जोडकर सम्पूर्ण देश में पंचायती राज्य की स्थापना का प्रावधान किया गया।74वाँ संविधान संशोधन (1992) – इसके द्वारा संविधान में 12 वी अनुसूची जोडकर नगरीय स्थानीय शासन को संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया गया।84वाँ संविधान संशोधन (2001) – इसके द्वारा 1991 की जनगणना के आधार पर लोक सभा और विधान सभा क्षेत्रों के परिसीमन की अनुमति प्रदान की गई।86वाँ संविधान संशोधन (2003) – इसके द्वारा प्राथमिक शिक्षा को मौलिक अधिकार की श्रेणी में लाया गया।91वाँ संविधान संशोधन (2003) –(1) इसके द्वारा केन्द्र और राज्यो के मंत्री परिषदों के आकार को सीमित करने तथा दल बदल को प्रतिबन्धित करने का प्रावधान है।(2) इसके अनुसार मंत्री परिषद में सदस्यों की संख्या लोक सभा या उस राज्य की विधान सभा की कुल सदस्य संख्या से 15% से अधिक नहीं हो सकती है।(3) साथ ही छोटे राज्यों के मंत्री परिषद के सदस्यों की संख्या अधिकतम 12 निश्चित की गई है।92वाँ संविधान संशोधन (2003) – इसके द्वारा संविधान की 8 वी अनुसूची में बोडो, डोगंरी, मैथिली और संथाली भाषाओं को शामिल किया गया है।103वाँ संविधान संशोधन  – जैन समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा108वाॅ संविधान संशोधन – महिलाओं के लिए लोकसभा व विधान सभा में 33% आरक्षण109वाॅ संविधान संशोधन – पंचायती राज्य में महिला आरक्षण 33% से 50%110वाॅ संविधान संशोधन – स्थानीय निकाय में महिला आरक्षण 33% से 50%114वाँ संविधान संशोधन –  उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की आयु 62 बर्ष से 65 बर्ष115वाॅं संविधान संशोधन – GST (वस्तु एवं सेवा कर)117वाॅं संविधान संशोधन – SC व ST को सरकारी सेवाओं में पदोन्नति आरक्षण