Saturday, 4 March 2017

राजनीति में भाषा का गिरता स्तर और उसका लोकतंत्र पर प्रभाव

राजनीति में भाषा का गिरता स्तर-
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पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के प्रचार अभियान
में बल्कि समान अवसर पर भी नेताओं के बीच एक दूसरे पर कीचड़ उछालने की होड़
जिस तरह बढ़ती जा रही है|
उससे भारतीय लोकतंत्र की मान मर्यादा को आघात ही लग रहा है|
राजनीतिक दल विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए
गड़े मुर्दे उखाड़ना और उन पर सनसनीखेज आरोप लगाने का काम कर रहे हैं|

एक दूसरे को आतंकवादी,गधा, शमशान बनाम कब्रिस्तान, चुनाव धर्म युद्ध है इत्यादि इत्यादि!
इन  सबकी  जिक्र राजनीति के अमर्यादित
चरित्र को सामने ला रही है|

नीतियों और मुद्दों की चर्चा बहुत दूर की बात हो गई है!
लोकतंत्र के आयोजन में जनहित के मुद्दे महत्व खोते दिख रहे हैं इसका एक पक्ष यह भी है-
चुकी चुनावों के समय जनता का बड़ा वर्ग नेताओं की इस तरह के बयान की प्रति रुचि प्रदर्शित करता है
इसलिए मतदाताओं के दिमाग में जगह पाने के लिए
राजनेता कहीं ना कहीं  इसको महत्त्व दे रहे हैं इसमें संदेह नहीं है कि चुनावों के समय नेताओं के बीच गर्मागर्मी बढ़ जाती है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह अपने भाषणों में मर्यादा की दीवार ही गिरा दें
कई देशों में लोकतंत्र ने इसलिए मजबूती हासिल की है
क्योंकि वहां राजनीति के प्रत्येक स्तर पर पारदर्शिता को सर्वाधिक महत्व दिया गया है |

नेताओं की चुनावी भाषणों में एक दूसरे को चुनौती देने
तरह - तरह के आरोप लगाने और व्यक्तिगत आक्षेप करने तक सीमित होते जा रहे हैं|

जबकि राजनेताओं को अपने भाषण में
संयम और शालीनता का परिचय देना आवश्यक है|

अगर में सुप्रीम कोर्ट की 1996 की जजमेंट को ध्यान में रखें तो उसमें साफ-साफ लिखा था कि राजनीतिक पार्टियों के बड़े नेता की उतनी ही बड़ी जिम्मेदारी है कि
अपनी भाषा का उपयोग ऐसा करें जिससे उनसे नीचे वालों को प्रेरणा मिले|

मेरे अनुसार यहां पर गांधी जी के कथन को समझने की आवश्यकता है|

¶¶ राजनीति व समाज में केवल उद्देश्य ही
सही नहीं होना चाहिए बल्कि
उन तक पहुंचने का रास्ता और साधन
भी नैतिक और
पारदर्शी होना चाहिए ||

                      - इलाहबाद से
                      
                       - अभिषेक पांडेय
                                           (panditabhishek294@gmail.com)

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