Tuesday, 31 January 2017

अभी भी जारी है एफजीएम प्रथा 

विशेषज्ञों ने कहा है कि यदि एशिया और मध्य-पूर्व विश्व में एक गुप्त प्रथा के तौर पर जारी एफजीएम प्रथा को समाप्त करने पर ध्यान नहीं दिया गया तो इस प्रथा की समाप्ति के लिये चलाई जा रही वैश्विक मुहिम असफल हो सकती है|एफजीएम यानी फीमेल जेनिटिकल म्युटेसन जैसी क्रूर प्रथा को औरतों के खतने के नाम से भी जाना जाता है| दुनियाभर में हर साल करीब 20 करोड़ बच्चियों या लड़कियों का खतना किया जाता है|यूनिसेफ के आँकड़े बताते हैं कि जिन 20 करोड़ लड़कियों का खतना होता है उनमें से करीब साढ़े चार करोड़ बच्चियाँ 14 साल से भी कम उम्र की होती हैं|

क्या है एफजीएम् प्रथा

रिवाज़ और प्रथाओं के नाम पर अमानवीयता के मामले तो आए दिन सामने आते ही रहते हैं, परन्तु एफजीएम परम्परा और अंधविश्वास का सबसे वीभत्स उदहारण है| इस प्रथा में आमतौर पर छोटी बच्चियों और महिलाओं के बाह्य जननांग काटकर आंशिक या पूर्णतः हटा दिया जाता है| कभी-कभी तो जननांग को धागे से सिलकर मूत्र त्याग के लिये एक छोटी सी जगह छोड़ दी जाती है|खतना कराने की वज़हों में परंपरा सबसे ऊपर है| उसके बाद धर्म, फिर साफ-सफाई और बीमारी से बचने आदि के नाम पर भी लड़कियों का खतना किया जाता है| लेकिन कुछ लोग ऐसे भी तर्क देते हैं कि युवा होने पर लड़कियों की कामेच्छा कम करने के मकसद से भी ऐसा किया जाता है|महिला खतने से कई तरह की मानसिक और शारीरिक दिक्कतें हो सकती हैं| विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार कुछ मामलों में तो मौत तक हो सकती है| प्रायः खतने के दौरान या उसके बाद अत्यधिक खून बहने से या बैक्टीरियल इन्फेक्शन से बहुत सी बच्चियों की मौत भी हो जाती है|अफ्रीका के अनेक देशों में स्कूल की छुट्‍टियों को ‘कटिंग सीजन’ के नाम से जाना जाता है| गर्मियों के दौरान यूरोप, अमेरिका और अन्य क्षेत्रों से भी हजारों की संख्या में लड़कियों को एफजीएम के लिये लाया जाता है|इस क्रूर परंपरा पर दुनिया के बहुत से देशों ने प्रतिबंध है लगा दिया है| गौरतलब है कि हाल ही में जॉर्जिया की सरकार ने संसद में खतना से संबंधित संशोधन मसौदे को पारित कर देश में होने वाले महिलाओं के खतने को अपराध घोषित कर दिया है|

भारत में भी हैं ऍफ़जीएम के मामले

भारत में मुसलमानों के एक छोटे से समुदाय बोहरा में महिलाओं का खतना यानी उनके जननांग के बाहरी हिस्से को रेज़र ब्लेड से काट देने का चलन मौजूद है| दाउदी बोहरा समुदाय एक छोटा मगर समृद्ध शिया मुस्लिम समुदाय है जो मुख्य तौर पर पश्मिची भारत में रहते हैं|यह समुदाय अपनी उत्पत्ति शिया इस्माइली मिशनरियों के 11वीं सदी में मिश्र से यमन होते होते हुए खंभात बंदरगाह पर आने से जोड़कर देखता है| इनमें से अधिकांश मिशनरी गुजरात के व्यापारी बन गए और इन्हें ही आज बोहरा के तौर पर जाना जाता है|विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं का खतना करने का कोई फायदा नहीं है और इससे उन्हें उल्टा नुकसान ही होता है| इसके अलावा यह मानवाधिकार का भी उल्लंघन है| दिसंबर 2012 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने महिलाओं का खतना रोकने के लिये प्रस्ताव पारित किया जबकि ऑस्ट्रेलिया में तीन बोहरा समुदाय के लोगों को महिला खतना का दोषी करार दिया गया| भारत में भी इस प्रथा के खिलाफ़ आवाज उठने लगी है|

निष्कर्ष

आज के दौर में महिलाओं को समान अधिकार देने का दावा किया जाता है, लेकिन अफसोस की बात तो ये है कि ऐसे वक्त में भी दुनिया के तमाम हिस्सों में महिलाएँ बुरे दौर से गुजर रही हैं। इसके लिये कहीं समाज में फैली कुरीतियाँ जिम्मेदार हैं तो कहीं विकृत सोच| बच्चियों और महिलाओं के लिए खतना जैसी परंपरा लगातार पर रोक लगाने के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ वर्ष 2012 से ही प्रयासरत है|विशेषज्ञों के अनुसार इस परम्परा का ज़िक्र न तो क़ुरान में है और न ही हदीस में| यह ज़ाहिर है कि इस प्रथा की ज़िम्मेदार एक संकीर्ण पुरुषवादी मानसिकता भी है| आज दुनिया की अधिकतर आबादी एक विकासशील और नए युग में प्रवेश कर चुकी है,जहाँ पर महिलाएँ सदियों बाद स्वतंत्रता की खुली हवा में साँस ले रही हैं| अत: महिला खतना जैसी बर्बर और क्रूर प्रथा तत्काल बंद होनी चाहिए|विश्व के जिन देशों में ये अमानवीय और आदिवासी प्रथा आज भी ज़ारी है,उसे बंद कराने के लिये वहाँ की सरकार को कानून बनाना होगा जैसा की अभी जॉर्जिया ने बनाया है| सामाजिक संस्थाएँ को चाहिये कि वह लोगों को इस आदिम और निंदनीय प्रथा को त्यागने के लिये जागरूक बनाएँ| वर्तमान समय के हमारे प्रगतिशील और आधुनिक समाज के लिये एफजीएम प्रथा एक बहुत बड़ा कलंक है|

सूअर और मानव के स्टेम कोशिकाओं का संयोजन

सूअर और मानव के स्टेम कोशिकाओं का संयोजन 

सन्दर्भ :

गौरतलब है, कि वैज्ञानिकों ने पहली बार ऐसे भ्रूणों को उत्पन्न किया है जिनमें सूअर और मानव के स्टेम कोशिकाओं का संयोजन है | एक अध्ययन के अनुसार, यह एक दिन में विकसित होने योग्य प्रत्यारोपण अंगों की दिशा में पहला कदम हैं | हालाँकि, अनुसंधानकर्ताओं ने इस  कोशिका (Peer-reviewed journal Cell) की समीक्षा करते हुए इस बात का उल्लेख किया है कि यह अनुसन्धान उम्मीद से अधिक कठिन सिद्ध हुआ है और अभी  अपने आरंभिक चरण में ही है |  परन्तु, इसके बावजूद भी एक पहले कदम या प्रथम प्रयास के रूप में यह निश्चित ह महत्त्वपूर्ण है |

उद्देश्य :

साल्क इंस्टिट्यूट ऑफ़ बायोलॉजिकल स्टडीज की जीन एक्सप्रेशन प्रयोगशाला ( Salk Institute of Biological Studies' Gene Expression Laboratory)  में संचालित, इस अनुसन्धान का मुख्य उद्देश्य क्रियात्मक और प्रत्यारोपण योग्य  ऊतकों अथवा अंगों को उत्पन्न करना है | 

प्रक्रिया के प्रमुख चरण :

इस प्रक्रिया में, वैज्ञानिकों ने सर्वप्रथम वयस्क स्टेम कोशिकाओं-- जिन्हें मध्यवर्ती इनड्यूस्ड प्लुरीपोटेंट स्टेम कोशिकाओं (Intermediate induced pluripotent stem cells)  के नाम से जाना जाता है--  को सूअर के भ्रूणों में प्रत्यारोपित किया तथा उन्हें चार सप्ताह तक विकसित होने के लिए छोड़ दिया |उन्होंने पाया कि सूअर के भ्रूण में मानवीय कोशिकाओं ने मांसपेशियों के ऊतकों में बदलना प्रारंभ कर दिया |इस प्रयोग में लगभग 1,500 सूअर के भ्रूणों को शामिल किया गया था तथा इसमें चार वर्षों का समय लगा | ध्यातव्य है, कि इन प्रयोगों के जटिल स्वभाव के कारण इसमें पहले आकलित किये गए समय की तुलना में अधिक समय लगा था |विदित हो, कि इसके अतिरिक्त एक पूर्ववर्ती शोध के अंतर्गत चूहों और मूषकों ( Rat & Mice ) जो कि नजदीकी रूप से सम्बन्धित हैं ,  के संयोजन को उत्पन्न किया गया था |ग्रीक मिथक के अनुसार, दो प्रजातियों  के मिलने से एक संकर प्रजाति  के  चिमेरा (chimera) की उत्पत्ति होती है | अतः वैज्ञानिकों ने अपने इस प्रयोग में मानव-जंतु के किसी पदार्थ को संयुक्त करने से पूर्व, इनके भ्रूणों को समाप्त कर दिया था |

आलोचना के बिंदु :

जहाँ एक ओर, यह शोध विज्ञान के नए द्वार खोलने का दावा कर रहा है  वहीं, मानव और जानवरों के संयोजन की धारणा ने विवादों को जन्म दिया है | इससे कई  नैतिक प्रश्न भी उठ रहे हैं,  क्योंकि इन प्रयोगों ने सैद्धान्तिक व विशेष रूप से - प्रायोगिक स्तर पर मानवीय विशेषताओं वाले जीवों को उत्पन्न करने की संभावना को जन्म दिया है |

नैतिकता का मसला - वैज्ञानिकों के एक वर्ग का कहना है कि सूअर के भ्रूण में अधिक मात्रा में मानव डीएनए डालने के गंभीर नतीजे निकल सकते हैं। इससे मानव मस्तिष्क या चेहरे वाला सुअर पैदा हो सकता है। सम्भवतः यदि वे बुद्धिमान भी हुए तो इससे आगामी खतरों और नतीजों का अनुमान लगाना मुश्किल होगा |चिंता यह भी है, कि इस तरह तैयार किए गए अंगों से भविष्य में मनुष्य में सूअरों में पाए जाने वाले वायरस पहूँच सकते हैं। दो जीव प्रजातियों को जैविक तौर पर मिलाने से मानवीय मनोविज्ञान पर भी असर पड़ सकता है।परन्तु, साल्क संस्थान के वैज्ञानिकों के अनुसार, सूअर के भ्रूण में मानवीय योगदान का स्तर निम्न था और इसमें मस्तिष्क की कोशिकाओं को शामिल नहीं किया गया था | 

यह रिसर्च महत्वपूर्ण क्यों है ? 

पशु जैव प्रौद्योगिकी विशेषज्ञों ने इस शोध को अनूठा माना है क्योंकि इसने भविष्य में अंग प्रत्यारोपण के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया है |यह शोध-कार्य वैज्ञानिक समुदाय को उद्भव,विकास और रोगों को समझने में सहायता प्रदान करेगा तथा निश्चित ही अंगों की कमी के निवारण हेतु खोजे जाने वाले उपायों को दिशा  प्रदान करेगा|इस तकनीक से एक दिन सूअर या अन्य किसी पशु में मानवीय अंग विकसित किए जा सकेंगे | वर्तमान में दुनियाभर में जरूरत के मुकाबले प्रत्यारोपण के लिए काफी कम अंग मिल पाते हैं |इस तकनीक से प्रत्यारोपण के लिए जरूरी अंगों की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित होने की उम्मीद है |इस तरह बने अंग मानव की प्रतिरक्षा प्रणाली के अनुकूल होंगे और शरीर उन्हें खारिज नहीं करेगा |इस अध्ययन में, विद्यमान क़ानूनी और नैतिक दिशा-निर्देशों का पहले से ही अनुसरण किया गया था| इसके अंतर्गत भ्रूण को प्रदत्त, अधिकतम समय में विकसित करने कि अनुमति प्रदान की गई |इस सन्दर्भ में यह भी  महत्वपूर्ण है, कि आगे की जाने वाली इस प्रकार की किसी भी अन्य खोज को, पूर्ण पारदर्शिता के साथ करना होगा जिससे यह सार्वजानिक जाँच और बहस का मुद्दा न बन सके |

वन्य जीव संरक्षण और बाघों की मौत के बढ़ते आँकड़े : एक विरोधाभास -

वन्य जीव संरक्षण और बाघों की मौत के बढ़ते आँकड़े : एक विरोधाभास

दुनिया में इस समय सबसे ज्यादा बाघ भारत में हैं | पिछले कुछ सालों में भारत में बाघों की संख्या में वृद्धि भी हुई है लेकिन इसके बावजूद तस्करों और सिकुड़ते जंगलों की वजह से बाघों के सामने अपना अस्तित्व बचाने की चुनौती बनी हुई है | 2017 के पहले ही पखवाड़े में दो बाघिनों और तीन तेंदुओं की मौत से वन्य जीव संरक्षण के प्रयास और भी निरर्थक से लगने लगे हैं | राष्ट्रीय पशु और जंगल का राजा कहलाने वाले ये बाघ, अब जीवन संघर्ष की लड़ाई में बाजी हारते हुए नजर आ रहे हैं |

प्रमुख बिंदु :

बाघों को बचाने की तमाम कोशिशों के बावजूद 2016 उनके लिए बेहद खराब साबित हुआ है | पिछले साल के शुरुआती 10 महीनों में ही 36 बाघों को तस्करों ने अपना शिकार बनाया |2017 के पहले पखवाड़े में ही दो बाघिनों और तीन तेंदुओं की मौत हो चुकी है | इन्हें अवैध शिकार से जोड़कर देखा जा रहा है |हाल ही, में महाराष्ट्र में दो महीने के भीतर बिजली के करंट के कारण होने वाली दो बाघों की मौत के बाद राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (National Tiger Conservation Authority - NTCA) निवारक उपाय के व्यापक प्रावधानों को लागू करने के लिए हरकत में आ गया है ।ध्यातव्य है, कि बाघ-तेंदुओं की आबादी दो मुख्य कारणों से कम हो रही है- एक तो तस्करी और दूसरे उनके स्वाभाविक आवास क्षेत्र की कमी । उन्हें बचाने के लिए जो टाइगर रिजर्व बनाए जा रहे हैं, उनसे इन दोनों में से एक भी समस्या का पूरी तरह निराकरण नहीं होता । उलटे सीमित क्षेत्र में विकसित किए गए संरक्षित क्षेत्र शिकारियों और तस्करों के लिए गारंटीशुदा शिकारगाह बन गए हैं । देश में मध्य प्रदेश, कर्नाटक एवं महाराष्ट्र इस क्षेत्र में अव्वल हैं |अब जहर देकर व करंट फैलाकर भी बाघों को मारा जाने लगा है। एनटीसीए (राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण) ने इस बात का खुलासा किया है |तस्करों और शिकारियों को पता है कि उस क्षेत्र में उन्हें निश्चित रूप से शिकार करने के लिए बाघ मिल जाएँगे। आज भी बाघ का खून, दांत, हड्डियां, बाल शक्तिवर्धक पारंपरिक दवाओं के निर्माण और यहां तक कि टोने-टोटके के तौर पर भी इस्तेमाल लाए जाते हैं। बाघ की हड्डियों की तो दुनिया भर में खासी मांग है। ये हड्डियाँ गठिया की दवा और दूसरे दर्दनिवारकों में बहुतायत से प्रयोग में लाई जाती हैं। असाध्य रोगों की चिकित्सा में भी इनका भरपूर इस्तेमाल होता है। दवाओं के बाद फैशन और सजावट की वस्तु के रूप में बाघ की खाल की मांग आज भी एशिया के कई देशों में कायम है । संवेदनशील क्षेत्रों में बाघ सहित अन्य वन्य जीव प्रजातियों की सुरक्षा हेतु गश्त लगाई जाएगी । इसके लिए वन विभाग की ओर से अधिकारियों और सुरक्षा गार्ड सहित विशेषज्ञों की टीमें बनाई जा रही हैं |रिजर्व वनों की दूसरी समस्या है छोटे-से वन क्षेत्र में अपने-अपने इलाके के लिए होने वाला संघर्ष। वहाँ  उन वन्यजीवों के लिए पर्याप्त भोजन भी नहीं बचा है । इसकी तलाश में वे मानव बस्तियों की ओर चले आते हैं, आदमखोर बन जाते हैं और फिर मारे जाते हैं ।

बाघ परियोजना

वैज्ञानिक, आर्थिक, सौंदर्यपरक, सांस्‍कृतिक और पारिस्‍थितिकीय दृष्‍टिकोण से भारत में बाघों की वास्‍तविक आबादी को बरकरार रखने के लिए तथा हमेशा के लिए लोगों की शिक्षा व मनोरंजन के हेतु राष्‍ट्रीय धरोहर के रूप में इसके जैविक महत्‍व के क्षेत्रों को परिरक्षित रखने के उद्देश्‍य से केंद्र द्वारा प्रायोजित बाघ परियोजना वर्ष 1973 में शुरू की गई थी।

राष्‍ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण तथा बाघ व अन्‍य संकटग्रस्‍त प्रजाति अपराध नियंत्रण ब्‍यूरो के गठन संबंधी प्रावधानों की व्‍यवस्‍था करने के लिए वन्‍यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 में संशोधन किया गया है । बाघ अभयारण्‍य के भीतर अपराध के मामलों में सजा को और भी अधिक कठोर  किया गया है ।वन्‍यजीव अपराध में प्रयुक्‍त किसी भी उपकरण, वाहन अथवा शस्‍त्र को जब्‍त करने की व्‍यवस्‍था भी अधिनियम में की गई है।सेवानिवृत्त सैनिकों और स्‍थानीय कार्यबल तैनात करके 17 बाघ अभ्‍यारण्‍यों को शत-प्रतिशत अतिरिक्‍त केंद्रीय सहायता प्रदान की गई है ।राज्‍य स्तरीय संचालन समिति का गठन और बाघ संरक्षण फाउंडेशन की स्‍थापना की गई है । संसद के समक्ष वार्षिक लेखा परीक्षा रिपोर्ट भी प्रस्तुत की गई है । अभयारण्‍य प्रबंधन में संख्‍यात्‍मक मानकों को सुनिश्‍चित करने के साथ-साथ बाघ संरक्षण को सुदृढ़ करने के लिए 4-9-2006 से राष्‍ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण का गठन किया गया ।वन्‍यजीवों के अवैध व्‍यापार को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करने के लिए पुलिस, वन, सीमा शुल्‍क और अन्‍य प्रवर्तन एजेंसियों के अधिकारियों से युक्‍त एक बहुविषयी बाघ तथा अन्‍य संकटग्रस्‍त प्रजाति अपराध नियंत्रण ब्‍यूरो (वन्‍यजीव अपराध नियंत्रण ब्‍यूरो), की स्‍थापना 6-6-2007 को की गई थी ।आठ नए बाघ अभयारण्‍यों  की घोषणा के लिए अनुमोदन स्‍वीकृत हो गया है ।बाघ संरक्षण को और अधिक मजबूत बनाने के लिए राज्‍यों को बाघ परियोजना के संशोधित दिशानिर्देश जारी कर दिए गए हैं। जिनमें चल रहे कार्यकलापों के साथ ही बाघ अभयारण्‍य के मध्‍य या संवेदनशील क्षेत्र में रहने वाले लोगों के संबंधित ग्राम पुनर्पहचान/पुनर्वास पैकेज (एक लाख रुपए प्रति परिवार से दस लाख रुपए प्रति परिवार) को धन सहायता देने, परंपरागत शिकार और मुख्‍यधारा में आय अर्जित करने तथा बाघ अभ्‍यारण्‍य से बाहर के वनों में वन्‍यजीव संबंधी चीता और बाघों के क्षेत्रों में किसी भी छेड़छाड़ को रोकने संबंधी रक्षात्‍मक रणनीति को अपना कर बाघ कोरीडोर संरक्षण का सहारा लेते हुए समुदायों के पुनर्वास/पुनर्स्‍थापना संबंधी कार्यकलाप शामिल हैं।बाघों का अनुमान लगाने के लिए एक वैज्ञानिक तरीका अपनाया गया है । इस नये तरीके से अनुमानतः 93697 कि.मी. क्षेत्र को बाघों के लिए संरक्षित रखा गया है। उस क्षेत्र में बाघों की संख्‍या अनुमानतः 1411 है, अधिकतम 1657 और नई वैज्ञानिक विधि के अनुसार न्‍यूनतम 1165 है। इस अनुमान/आकलन के नतीजे भविष्‍य में बाघों के संरक्षण की रणनीति बनाने में बहुत उपयोगी सिद्ध होंगे ।भारत ने चीन के साथ बाघ संरक्षण संबंधी समझौता किया है । इसके अलावा वन्‍यजीवों के अवैध व्‍यापार के बारे में सीमापार नियंत्रण और संरक्षण के संबंध में नेपाल के साथ भी एक समझौता किया है।बाघ संरक्षण संबंधी अंतर्राष्‍ट्रीय मुद्दों पर चर्चा के लिए जिन देशों में बाघ पाए जाते है उन में एक ग्लोबल टाइगर फोरम का गठन किया गया है ।

आगे की राह :

विशालकाय जंगलों में बाघों, शेरोन या अन्य वन्य प्राणियों की निरंतर घटती संख्या को रोकने के लिए सबकी भागीदारी अपेक्षित है | इस मामले में सिर्फ़ सरकार पर आरोप लगाना ग़लत है | दरअसल, वन्य जीवन को बचाने की इच्छाशक्ति न  तो हमारे राजनीतिज्ञों में दिखाई देती है और न ही आम जनता में । जो लोग टाइगर रिज़र्व के पास रहते हैं उन्हें बाघ की नहीं, अपनी रोज़ी और परिवार की सलामती की चिंता है | इसके अतिरिक्त, आमतौर पर बाघ या शेर जैसे वन्यजीवों को बचाने की किसी भी योजना में उस आदिवासी समाज का जिक्र कहीं नहीं होता है जो मुख्य रूप से वनों पर ही निर्भर है । जबकि वन्यजीवों के बचाने के लिए उन्हें वनों से बाहर पुनर्स्थापित करने की बात हमेशा कही जाती है । वास्तव में, अब एक ऐसी योजना बनाने की जरूरत है जिसमें वनों पर निर्भर आदिवासी समाज व वन्यजीव दोनों के बारे में सोचा जाए | साथ ही, इस दिशा में किये जा रहे सभी प्रयासों में ‘नीतिगत और क्रियान्वयन के स्तर पर’ तेजी लाने के लिए , जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता है जिससे आर्थिक और सामाजिक स्तर पर भी इस समस्या से निबटा जा सके |

Thursday, 12 January 2017

आदिवासी स्त्रियों का शोषण रोकने सुरक्षा कवच जरूरी –

ढाई-तीन दशक से मनुष्यों का आखेट क्षेत्र बने हुए बस्तर के अनेक अप्रिय सच सामने आने लगे हैं। बस्तर की वे अल्हड़ युवतियां, जो घने जंगल में मुक्त विचरण करते हुए शेर और भेड़िये से भी नहीं डरा करती थीं, अब दो पैरों वाले नृशंस पशुओं की छाया से भी थरथराने लगी हैं। कटु सत्य यह है कि वे कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। बालिका छात्रावासों में शिक्षकों और अन्य पुरुष-कर्मियों द्वारा बच्चियों के यौन उत्पीड़न और उनके गर्भवती हो जाने की घटनाएं भी राष्ट्रीय स्तर तक चर्चित हुई हैं। वाम चरमपंथियों द्वारा उनके देह शोषण की खबरें अक्सर आती रहती हैं। उनके चंगुल से निकलकर वे पुलिस और समाज के सामने अपनी व्यथा दर्ज कराने का साहस भी जुटाती हैं, परंतु पुलिस और अर्धसैनिक बल जब स्वयं उनके साथ दुष्कर्म करने लगें तो वे कहां जाए? हो तो ये सब कुछ मुद्दत से रहा है, परंतु पिछले कुछ वर्षों में मानवाधिकार के हनन की निगहबानी करने वाले कुछ व्यक्तियों, संगठनों द्वारा उनकी यातना शासन-प्रशासन व राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सामने रखी जाने लगी हैं।

इधर, इस प्रकार यौन उत्पीड़ित 37 महिलाओं ने साहस जुटाकर राष्ट्रीय मानवाधिकार के सामने पुलिस के दुष्कर्मों की जो शिकायत की थी, उसका संज्ञान लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक टीम ने बीजापुर जिले के उस क्षेत्र का प्रत्यक्ष अवलोकन किया, जहां स्त्रियां सन् 2015 में सुरक्षाकर्मियों की वासना की शिकार हुई थीं। दल द्वारा जुटाए साक्ष्य के आधार पर आयोग ने राज्य शासन को अपनी चिंता से अवगत कराया। अब राज्य सरकार का दायित्व है कि वह दोषी सुरक्षाकर्मियों के विरुद्ध तत्परता से कार्रवाई करे।

राज्य का मीडिया, स्वयंसेवी संगठन व सामाजिक कार्यकर्ता बार-बार कहते आ रहे हैं कि बस्तर में महिलाओं और निर्दोष आदिवासियों पर सुरक्षा कर्मियों का कहर टूटता रहता है। निश्चय ही ये हमारी व्यवस्था के अप्रिय सत्य का सुलगता पहलू है। परंतु इसका दूसरा पहलू भी उतना ही चिंताजनक है। वह है सुरक्षा कर्मियों की आहत संवेदनाओं का। उन पर चरम वामपंथी अथवा नक्सली अक्सर घात लगाकर हमले करते हैं। सरेबाजार इक्का-दुक्का सुरक्षाकर्मी को घेरकर मार दिया जाता है। बस में यात्रा करते समय भी वे सुरक्षित नहीं। नक्सली उन्हें सरेराह बाहर खींचकर गोलियों से भून डालते हैं। घने वनों की तन्हाई और लंबे समय तक परिवारों से दूर रहने को अभिशप्त सुरक्षाकर्मी अवसाद जैसे अनेक मनोविकारों से भी ग्रस्त पाए जाते हैं। जीवन का एक-एक पल उनके लिए असहनीय यातना बन जाता है। परिणाम स्वरूप वे अपने ही हथियारों से अपना जीवन ले लेते हैं। इसी सप्ताह के आरंभ में कांकेर जिले में पदस्थ कन्याकुमारी के एक जवान ने अपनी सर्विस रिवॉल्वर से आत्महत्या कर ली। अभी तक ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बन पाई है कि एक निश्चित अवधि तक ऐसे बीहड़ क्षेत्रों में पदस्थापना के पश्चात उन्हें अपेक्षाकृत सुरक्षित क्षेत्रों में तैनात किया जाए और उनके स्थान पर नए लोगों को वहां कुछ वर्षों के लिए रखा जाए।

इन विसंगतियों और विवशताओं के बीच भी सुरक्षाकर्मियों से अपेक्षा की जाती है कि वे स्त्रियों, बच्चों व आम आदिवासियों के प्रति मनुजता का व्यवहार करें। बस्तर को भीतर-बाहर से जानने-समझने वालों का अनुभव है कि स्त्री यहां कभी भी बाहरी लोगों की वासना से मुक्त नहीं रही। शासकीय कर्मचारी, ठेकेदार, व्यापारी व पर्यटक भी उन्हें भोग की वस्तु ही मानते रहे। परंतु तब ऐसे प्रशासक भी थे, जो इस प्रकार के अपराधियों की खबर लेने से गुरेज नहीं करते थे। 1970 के दशक का एक उदाहारण है कि बस्तर में अधिकारियों-कर्मचारियों ने आदिवासी युवतियों को अपने घरों में रख लिया था। उनसे अवैध संबंधों के कारण अनेक बच्चे भी पैदा हुए थे। जब उनको बेसहारा छोड़ दिया तब तत्कालीन कलेक्टर डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा ने उन सबको सामूहिक विवाह के लिए बाध्य कर उन आदिवासी युवतियों और उनकी संतान के पुनर्वास की व्यवस्था की थी। क्या वर्तमान शासन-प्रशासन ऐसी मानवीय संवेदना का परिचय देने के लिए सामने आना चाहेगा?

Sunday, 8 January 2017

अपने लोगों को विदेशों से निकालने में कितना सक्षम है भारत -

सन्दर्भ

हाल ही के एक अध्ययन से पता चला है कि आपातकालीन परिस्थितियों में विश्व के अन्य हिस्सों से अपने लोगों को निकालने की भारत की निष्क्रमण प्रक्रिया विसंगतियों से युक्त है। वस्तुतः भारत की निष्क्रमण प्रक्रिया त्वरित कार्रवाइयों तथा फौरी समाधानों पर निर्भर है।

इस संबंध में प्रमुख समस्याएँ

गौरतलब है कि ज़्यादातर खाड़ी देशों से भारतीय कामगारों की समस्याओं की शिकायतें मिलती रहती हैं। इनमें मज़दूरी न दिये जाने अथवा देर से भुगतान, कामकाज और आवास  की कठिन परिस्थितियाँ, कामगारों के अनुबंध में एकपक्षीय बदलाव, नियोक्ता द्वारा पासपोर्ट अपने पास रखना, दलालों द्वारा धोखा देना, शारीरिक और यौन उत्पीड़न इत्यादि प्रमुख हैं।हालाँकि, भारत सरकार ने प्रवासी भारतीय श्रमिकों के संरक्षण और उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिये प्रवासी भारतीय मामलों के मंत्रालय खासकर संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत, ओमान, बहरीन और मलेशिया जैसे खाड़ी देशों समेत अनेक देशों के साथ द्विपक्षीय समझौते किये ।लेकिन आपातकालीन परिस्थितियों में जब लोगों को किसी देश से अचानक निकालने की आवश्यकता होती है तब सरकार के संबंधित निकायों को मुसीबत का सामना करना पड़ता है, भारत में इस तरह के मिशन के लिये एक मानक संचालन प्रक्रिया (standard operating procedure - SOP) का आभाव है। यह बहुत ही चिंताजनक बात है कि इन परिस्थितियों में हमें नागरिक उड्डयन, सैन्य और राजनयिक सेवाओं के व्यक्तिगत बलिदानों पर निर्भर रहना पड़ता है|विदित हो कि 11 मिलियन भारतीय विदेशों में रह रहे हैं और प्रत्येक वर्ष लगभग 20 मिलियन भारतीय विदेश यात्राओं पर जाते हैं| अथ आपातकालीन परिस्थितियों में हम त्वरित समाधानों और कार्यवाहियों के भरोसे बैठे नहीं रह सकते।

इस संबंध में सरकार के प्रयास

गौरतलब है कि खाड़ी देशों समेत विश्व के अन्य देशों के साथ द्विपक्षीय समझौते के अलावा पिछले साल दुनिया के किसी भी कोने से मुसीबत में घिरे भारतीय को तत्काल मदद पहुँचाने के उद्देश्य से केंद्र सरकार ने एक फेसबुक एप शुरू किया था, जिसके माध्यम से दुनिया के किसी भी कोने में परेशानी में फँसे भारतीयों को तुरंत मदद दी जा सकती है। विदेश मंत्रालय ने सोशल मीडिया के लोकप्रिय मंच फेसबुक पर 172 देशों में संचालित अपने मिशनों को एक साथ समेटकर फेसबुक एक नया एप विकसित किया था, जिससे विदेशों में ज़रूरतमंद भारतीय उन देशों में मौजूद भारतीय उच्चायुक्त या मिशन प्रमुखों से सीधे संपर्क करके मदद हासिल कर सकते हैं।

निष्कर्ष

आज वैश्विक हालात पहले की तुलना में अधिक परिवर्तनशील हैं| ऐसे में कभी यमन तो कभी कुवैत जैसे देशों से फँसे भारतीयों की एक बड़ी जनसंख्या के निष्क्रमण हेतु सरकार को अभियान चलाना पड़ता है।प्रायः ये अभियान जोख़िम से भरे होते हैं और अब तक भारतीय सेना ने अभूतपूर्व बहादुरी का परिचय देते इन अभियानों को सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुँचाया है, लेकिन हम हमेशा ही अपनी बहादुर सेना और नागरिक उड्डयन पर पूर्णतः निर्भर नहीं रह सकते, अतः भारत को चाहिये कि आपातकालीन वैश्विक परिस्थितियों में विदेशों में फँसे अपने नागरिकों को निकालने के लिये एक मानक संचालन प्रक्रिया (standard operating procedure - SOP) का गठन करे।-